चाँद का मुँह टेढ़ा है

चाँद का मुँह टेढ़ा है

चाँद का मुँह टेढ़ा है

हिंदी :– (सप्रसंग व्याख्या)चाँद का मुँह टेढ़ा है - मुक्तिबोध
कविता :– ” चाँद का मुँह टेढ़ा है ”
कवि :- (मुक्तिबोध)
पद्याशं :– ” भूल – गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहन कर
तख्त पर दिल के
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक ,
आँखें चिलती हैं नुकीले तेज पत्थर – सी ,
खड़ी हैं सिर झुकाये
सब कतारें / बेजुबाँ बेबस सलाम में
अनगिनत खंभों व मेहराबों – थमे
दरबारे – आम में ,
* प्रसंग :– प्रस्तुत पंक्तियां कवि मुक्तिबोध द्वारा रचित ”चांद का मुंह टेढ़ा है” संग्रह में से संकलित “भूल गलती” शीर्षक कविता से ली गई है।
कवि ने इन पंक्तियों में भूल – गलती का मानवीकरण किया है । अर्थात बताया गया है कि मानव किस तरह भूलें , गलतियाँ लगातार करता चला जाता है।


* व्याख्या :— कभी कवि मुक्तिबोध इन पंक्तियों के माध्यम से यह बता रहा है, कि भूल गलती रूपी सुलतान (मानव) जो कि कवच पहनकर स्वयं के हृदय रूपी आसन पर बैठा हुआ है । कवि बता रहे हैं कि, मानव अपने जीवन में कभी-कभी भूल और गलतियां कर देता है, और वह जब ऐसी गलतियां कर देता है तो उसे ऐसी भूलें और गलतियाँ करते रहने की आदत सी पड़ जाती है। फिर वह कठोर और संवेदनहीन बन जाता है। मानव की इन भूलों और गलतियों से उसके जीवन में जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता।
वर्तमान में भी मानव की यही स्थिति इन पंक्तियों के माध्यम से बताई गई है , कि हमारी जो भूल गलती है , वही सुल्तान बनकर जिरहबख्तर पहनकर स्वयं के हृदय रूपी आसन पर बैठे हुए हैं। कवि यह संकेत कर रहा है कि हमारे समाज में जो ‘ प्रशासक वर्ग ‘ है वह लोग ऐसे हैं कि बिना सोचे – समझे ही गलतियाँ करते चले जाते हैं , और फिर वह लोग ऐसा कवच धारण कर लेते हैं कि दूसरा कोई उन्हें बदल भी नहीं सकता या फिर उसे कोई भेद ही नहीं सकता।
कवि ने बताया है कि यह सब कुछ हमारी ही गलतियों का परिणाम है । जिससे यह भयानक विडंबना हमारे सामने आई है। हमारी ही भूल गलती हमारे चारों तरफ भयानक हथियार लिए हुए दूर-दूर तक दिखाई दे रही है । और यह हिंसक हथियार दूर तक चमकते हुए हमें दिखाई दे रहे हैं ।
इस भूल – गलती के हथियारों के नुकीले अंश हम दिन – रात सहते रहते हैं और सिर झुकाये हुए, बेबस बन कर, बेजुबाँ होकर उसको विनम्रता पूर्वक सलाम करते रहते हैं। अर्थात इस प्रकार से भूल – गलती रूपी जो सुल्तान है उसके सामने ‘दरबार – ए – आम’ में हम अपनी सलामती बताते हुए हर परिस्थिति में सिर झुका कर उसी सुल्तान के समक्ष उसकी हां में हां मिलाते रहते हैं । वह गलतियाँ ऐसी हिंसक होती है, कि मानव स्वयं उसे गलत नहीं मानता और जैसे वह करवाती है वह गलतियां और भूल हम सभी के सामने बिना डरे हुए करते रहते है।



* सारांश :— इन पंक्तियों के अंतर्गत भूल गलती का जो सुल्तान है उसका मानव के रूप में मानवीकरण किया गया है। अर्थात मानव पर आघात किया गया है।
‘ बेजुबाँ बेबस सलाम में ‘ इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार का सौंदर्य है। और लोकतंत्रीय पद्धति में जीवन बिताने वाले विवश लोगों की स्थिति का बिंब भी बताया गया है। अर्थात समाज में रहने वाले लोगों की व्यवस्था, विडंबना की स्थिति को बताया गया है।
‘ तेज पत्थर सी’ पंक्ति में उपमा अलंकार का सौंदर्य विद्यमान है।

 

सोने के अंडे वाली मुर्गी

More Notes :- notesjobs.in

Leave a Comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.