राज्य की अवधारणा व संप्रभुता

राज्य की अवधारणा व संप्रभुता

राज्य की अवधारणा व संप्रभुताराज्य की अवधारणा व संप्रभुता प्रश्न 1. राज्य की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? उत्तर राज्य शब्द का अंग्रेजी रूपांतर ‘स्टेट’ लैटिन भाषा के ‘स्टेटस’ से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ “किसी व्यक्ति के सामाजिक स्तर से होता है।” परंतु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदला और बाद में इसका अर्थ सारे समाज के स्तर से हो गया। प्रश्न 2. निम्न विचारकों की राज्य संबंधी परिभाषा लिखो? उत्तर 1. अरस्तु :– ” राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक संघ होता है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण तथा आत्मनिर्भर जीवन की स्थापना है जिससे हमारा अभिप्राय सुखी और सम्मानीय जीवन से है।” 2. बर्गेस :– ” राज्य एक संगठित इकाई के रूप में मानव जाति का एक विशिष्ट भाग है ।” 3. ब्लंट्शली :– ” एक निश्चित प्रदेश के राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोग राज्य है। ” 4. विलोबी :– ” राज्य मनुष्यों के उस समाज को कहते हैं जिनमें एक ऐसी सत्ता पाई जाती है जो अपने अंतर्गत व्यक्तियों तथा व्यक्ति समूह के कार्यों पर नियंत्रण रखती हो। लेकिन वह स्वयं किसी भी नियंत्रण से मुक्त हो। “ 5. गार्नर :– ” राजनीतिशास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा के रूप में राज्य थोड़े या अधिक संख्या वाले संगठन का नाम है जो कि स्थाई रूप से पृथ्वी के निश्चित भाग में रहता हो। वह बाहरी नियंत्रण से संपूर्ण स्वतंत्र या लगभग स्वतंत्र हो और उसकी एक संगठित सरकार हो जिसकी आज्ञा का पालन अधिकतर जनता स्वभाव से करती हो। “ 6. वुड्रो विल्सन के अनुसार :– ” पृथ्वी के किसी निश्चित भाग में शांतिमय जीवन के लिए संगठित जनता को राज्य कहा जाता है।” प्रश्न 3. राज्य के आवश्यक तत्वों के बारे में संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कीजिए ? उत्तर राज्य की परिभाषाओं से पता चलता है कि इसके चार तत्व है:– 1. जनसंख्या 2. निश्चित भूमि 3. सरकार 4. प्रभुसत्ता या राज्यसत्ता 1. जनसंख्या :– राज्य के बनने के लिए जनसंख्या आवश्यक है । बिना जनसंख्या के राज्य नहीं बन सकता । जनसंख्या की सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, परंतु राज्य में आबादी उसके साधनों के अनुपात में हो तो अच्छा है। 2. निश्चित भूमि :– जनसंख्या की भांति यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि आदर्श राज्य के लिए कितना क्षेत्रफल आवश्यक है । कुछ समय पहले लेखकों का मत था कि , आदर्श राज्य में काफी खाद्य सामग्री उत्पन्न करने वाली भूमि होनी चाहिए। जिससे नागरिकों को दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। यदि किसी राज्य के पास अधिक भूमि हो तो वह उसके लिए शक्तिदायक सिद्ध होती है। अतः राज्य के लिए क्षेत्रफल निश्चित नहीं किया जा सकता , फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि छोटे राज्यों की अपेक्षा बड़े राज्य अधिक उपयोगी रहते हैं। क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली होते हैं । और उनमें विभिन्न जातियों के मिश्रण के कारण उदार भावना बनी रहती है। 3. सरकार :– सरकार राज्य का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है। सरकार वह ऐजेंसी है, जिसके द्वारा राज्य की इच्छा प्रकट होती है और क्रियान्वित होती है । सरकार के द्वारा ही समाज में संगठन उत्पन्न होता है और शांति की स्थापना होती है। सरकार के बिना मनुष्यों के समूह अव्यवस्थित रहेंगे और उनमें अशांति बनी रहेगी। सरकार के तीन अंग होते हैं — कार्यपालिका, विधान मंडल व न्यायपालिका। राज्य में सरकार किस प्रकार की हो उसके कोई निश्चित नियम नहीं है। जहां भारत, इंग्लैंड, अमेरिका , कनाडा , न्यूजीलैंड , फ्रांस, इटली आदि में लोकतंत्र है। वहीं चीन, फिनलैंड, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी और पोलैंड आदि देशों में कम्युनिस्ट पार्टी लंबे समय से सत्तारूढ़ है । 4. प्रभुसत्ता :– राजसत्ता राज्य का प्राण है। इसके बिना राज्य नहीं बन सकता। राजसत्ता का अर्थ है – राज्य की सर्वोच्च शक्ति । राजसत्ता दो प्रकार की होती है — बाहरी और अंदरूनी। बाहरी सत्ता का अर्थ है कि देश किसी बाहरी शक्ति के अधीन ना हो। उदाहरण के लिए 1947 से पूर्व भारत अंग्रेजों के अधीन था । अतः भारत राज्य नहीं था, ग्रेट ब्रिटेन राज्य था जिसका भारत पर स्वामित्व था। अंदरूनी राज्य सत्ता का अर्थ है , राज्य अपनी सब संस्थाओं और व्यक्तियों पर सर्वोच्च सत्ता रखता हो। प्रश्न 4. जीन बोदाँ प्रभुसत्ता की क्या परिभाषा दी ? उत्तर ” संप्रभुता नागरिकों तथा प्रजा के ऊपर वह परम शक्ति है जो कानूनों से नियंत्रित नहीं है।” प्रश्न 5. राज्य व सरकार में अंतर स्पष्ट करो? उत्तर 1. राज्य अमूर्त और सरकार मूर्त है :– राज्य एक अमूर्त धारणा है, जबकि सरकार एक मूर्त यंत्र है जो व्यक्तियों की निश्चित संख्या के योग से बनती है। 2. सरकार राज्य की एजेंट होती है :– सरकार के माध्यम से राज्य अपनी इच्छा को प्रकट करता है। सरकार राज्य के लक्ष्यों को पूरा करती है , और अपनी सभी शक्तियां राज्य से अर्थात उसके सबसे महत्वपूर्ण तत्व जनता से ग्रहण करती है। 3. सरकार राज्य का अंग है :– सरकार राज्य के लिए आवश्यक चार तत्वों में से एक है जबकि राज्य अपने आप में एक व्यापक धारणा है । 4. राज्य के पास राजसत्ता है , सरकार के पास नहीं :– राजसत्ता राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है । सरकार के पास राजसत्ता नहीं रहती, क्योंकि लोकतंत्र में जनता सरकार की सभी शक्तियों का स्रोत मानी जाती है । 5. सरकार परिवर्तनशील और राज्य स्थायी है :– राज्य का अस्तित्व स्थायी होता है, तथा सदैव एक जैसा रहता है। परंतु सरकारों के अनेक रूप होते हैं तथा सरकारें परिवर्तनशील होती है। 6. राज्य की सदस्यता अनिवार्य , सरकार की नहीं :– व्यक्ति जन्म लेते ही राज्य अनिवार्य रूप से सदस्य बन जाता है। जबकि सरकार का सदस्य बनना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है । 7. राज्य के लिए क्षेत्र अनिवार्य , सरकार के लिए नहीं :– कई बार एक प्रदेश की सरकार दूसरे राज्य में भी स्थापित हो जाती है। 8. सरकार का विरोध किया जा सकता है राज्य का नहीं :– सरकार की अनुचित अथवा जनविरोधी नीतियों और कार्यों का नागरिक विरोध कर सकते हैं, जबकि राज्य एक अमूर्त संस्था है। जिसका कि नागरिक विरोध नहीं कर सकते। प्रश्न 6. राज्य व समाज में क्या अंतर है ? उत्तर 1. राज्य एक राजनीतिक व्यवस्था, समाज एक सामाजिक व्यवस्था है। समाज से उन मनुष्यों का ज्ञान होता है , जो परस्पर सामाजिक बंधन में रहते हैं। 2. समाज के पास प्रभुसत्ता नहीं रहती, राज्य के पास रहती है। राज्य के कानून भंग करने पर राज्य द्वारा दंड दिया जा सकता है । 3. समाज राज्य से पहले बना है। जब मनुष्य संगठित नहीं था घुमक्कड़ तथा कबीलों के रूप में रहता था, तब भी वहां समाज था ।.राज्य का विकास बाद में हुआ, जब मनुष्य ने सभ्यता से तथा संगठित होकर रहना सीखा । 4. राज्य मनुष्य के राजनीतिक पहलू से संबंधित है, समाज नैतिक पहलू से। 5. समाज के लिए क्षेत्र आवश्यक नहीं, राज्य के लिए आवश्यक है। समाज स्थानीय भी और अंतरराष्ट्रीय भी हो सकता है। प्रश्न 7. संप्रभुता का अर्थ स्पष्ट करो ? उत्तर प्रभुसत्ता को हिंदी में राजसत्ता अथवा संप्रभुता भी कहा जाता है । अंग्रेजी में इसको ‘सावरेंटी’ कहा जाता है। जो लेटिन भाषा के ‘सुप्रेनस’ शब्द से निकला है। जिसका अर्थ सर्वोच्च शक्ति होता है। * प्रभुसत्ता के दो पहलू :– प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है, एक आंतरिक और दूसरी बाहरी। आंतरिक सत्ता का अर्थ है कि राज्य के अंदर रहने वाले सभी व्यक्ति तथा संस्थाएं उसके पूर्ण अधीन होती है। यदि वे राज्य की आज्ञा का पालन ना करें , तो राज्य को उन्हें दंड देने का पूरा अधिकार होता है। बाहरी राज्यसत्ता का अर्थ है कि राज्य किसी बाहरी देश या संस्था के अधीन नहीं है। प्रत्येक राज्य को व्यापारिक संधियां और सैनिक समझौते करने का पूर्ण अधिकार होता है। प्रत्येक देश को यह अधिकार होता है कि, वह अपनी विदेश नीति किसी तरह भी चलाएं, चाहे वह किसी के साथ गुटबंदी करें , समूह करें या किसी के साथ संधि करें। प्रश्न 8. संप्रभुता के संबंध में निम्न विचारकों के विचार लिखो ? उत्तर ग्रोशियस :– प्रभुसत्ता किसी में निहित वह सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है, जिसके कार्य किसी दूसरे के अधीन न हो तथा जिसकी इच्छा का कोई उल्लंघन न कर सके। बोडिन :– प्रभुसत्ता नागरिकों तथा प्रजा के ऊपर वह परम शक्ति है, जो कि कानूनों से नियंत्रित नहीं है। विलोबी :– प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोपरि इच्छा होती है । लास्की :– प्रभुसत्ताधारी वैधानिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय से उच्चतर है। प्रश्न 9. संप्रभुता का ऐतिहासिक विकास क्रम बताइए? उत्तर प्रभुसत्ता का परंपरागत सिद्धांत का निरूपण अनेक विचारको की कृतियों में देखने को मिलता है। सोलहवीं शताब्दी में जीन बोदां ( 1530 – 96 ) , 17 वीं शताब्दी में ह्युगो ग्रोसियस (1583 – 1645 ), टामस हॉब्स ( 1588 – 1679 ) , 18वीं शताब्दी में जीन जाक रूसो ( 1712 – 78 ) और 19वीं शताब्दी में जॉन ऑस्टिन ( 1790 – 1859 ) में इस सिद्धांत को बहुत स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया। ऐसा माना जाता है, कि इस सिद्धांत का उद्भव 16वीं शताब्दी में हुआ। प्रश्न 10. प्रभुसत्ता के लक्षण / विशेषताएं लिखो ? उत्तर * प्रभुसत्ता के लक्षण विशेषताएं निम्नलिखित हैं :– 1. पूर्णता :– प्रभुसत्ता एक पूर्ण और असीम शक्ति है। यह अन्य किसी शक्ति पर आश्रित नहीं। राज्य के भीतर सभी व्यक्ति और उनके समूह प्रभुसत्ताधारी के अधीन होते हैं । राज्य के बाहर भी प्रभुसत्ताधारी को अपने राज्य के संदर्भ में सर्वोच्च माना गया जाता है अन्य कोई राज्य ना तो उसके मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है, ना उसे किसी बात के लिए विवश कर सकता है । अंतरराष्ट्रीय सन्धियां और समझौते प्रभुसत्ता को नष्ट नहीं कर देते , क्योंकि कोई राज्य इन्हें अपनाने को बाध्य नहीं होता है। 2. सार्वभौमिकता :– प्रभुसत्ता राज्य के भीतर सभी व्यक्तियों , संस्थाओं और अन्य वस्तुओं में सर्वोच्च होती है । वैसे राज्य चाहे तो किसी विषय को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर रख सकता है , परंतु कोई व्यक्ति या संगठन राज्य के अधिकार – क्षेत्र से मुक्ति की मांग नहीं कर सकता। अतः राज्य की सीमा – क्षेत्र के अंतर्गत प्रभुसत्ता एक सर्वव्यापक , सार्वभौम , और सार्वजनिक शक्ति है। राजनयिक मिशनों को राज्य के अधिकार – क्षेत्र से जो उन्मुक्ति प्राप्त होती है, वह अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार का विषय है, प्रभुसत्ता के सिद्धांत का यथार्थ अपवाद नहीं। 3. अदेयता :– प्रभुसत्ता चूंकि अखंड और असीम होती है, इसलिए यह किसी और को नहीं सौपीं जा सकती। यदि प्रभुसत्ता संपन्न राज्य अपनी प्रभुसत्ता किसी और को हस्तांतरित करना चाहे तो उसका अपना अस्तित्व ही मिट जाएगा । यदि एक राज्य अपने क्षेत्र का कोई हिस्सा किसी राज्य को अर्पित कर देता है, तो उस हिस्से पर उसकी अपनी प्रभुसत्ता समाप्त हो जाएगी। और दूसरे राज्य की प्रभुसत्ता स्थापित हो जाएगी । * लीवर ने कहा है कि ” जिस प्रकार आत्महत्या के बिना मनुष्य अपने जीवन को या वृक्ष अपने फलने – फूलने के गुण को पृथक नहीं कर सकता है, उसी प्रकार प्रभुसत्ता को भी राज्य से पृथक नहीं किया जा सकता है । “ 4. स्थायित्व :– जैसे राज्य स्थायी होता है वैसे ही प्रभुसत्ता भी स्थाई होती है । जब तक राज्य का अस्तित्व रहता है तब तक प्रभुसत्ता भी रहती है। दोनों को पृथक – पृथक नहीं किया जा सकता । सम्राट या राष्ट्रपति की मृत्यु या पद – त्याग से प्रभुसत्ता का अंत नहीं होता। बल्कि वह तत्काल दूसरे राष्ट्रपति में निहित हो जाती है । 5. अविभाज्यता :– प्रभुसत्ता चूंकि पूर्ण और सर्व व्यापक होती है , इसलिए इसके टुकड़े नहीं किए जा सकते । यदि प्रभुसत्ता के टुकड़े कर दिए जाएं तो राज्य के सभी टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। अन्य समूह या संस्थाएं अपने सदस्यों के संदर्भ जिस सत्ता का प्रयोग करती है , वह उन्हें राज्य की प्रभुसत्ता में से काटकर नहीं दी जाती, बल्कि वह राज्य की प्रभुसत्ता की देन होती है। * काल्होन के अनुसार , ” सर्वोच्च सत्ता एक पूर्ण वस्तु है । इसको विभक्त करना , इसको नष्ट करना है। यह राज्य की सर्वोच्च शक्ति है। जिस प्रकार हम अर्द्ध वर्ग अथवा अर्द्ध त्रिभुज की कल्पना नहीं कर सकते , उसी प्रकार अर्द्ध – सर्वोच्च संस्था सत्ता की भी कल्पना नहीं की जा सकती है । 6. अनन्यता :– इसका अर्थ यह है कि राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी नहीं हो सकते, क्योंकि यदि एक राज्य में दो प्रभुसत्ताधारी मान लिया जाएँ तो उससे राज्यों की एकता नष्ट हो जाती है। एक प्रभुत्व संपन्न राज्य में दूसरा प्रभुत्व संपन्न राज्य नहीं रह सकता है। प्रश्न 11. नाम मात्र व वास्तविक संप्रभुता से आप क्या समझते हैं? उत्तर नाम मात्र वह वास्तविक संप्रभुता :– पहले बहुत से देशों में राजा या सम्राट निरंकुश होते थे। उनके हाथ में वास्तविक शक्तियां थी और संसद कठपुतली होती थी । उस समय वह वास्तविक प्रभुसत्ता का प्रयोग करते थे। इंग्लैंड में गौरवपूर्ण क्रांति (1588 ईसवी) के पश्चात यहां स्थिति बदली। अब वहां सम्राट के नाम मात्र शक्तियाँ रह गई है । व्यवहार में उसे अपने मंत्रियों को चेतावनी देने, सूचना प्राप्त करने, सलाह देने और प्रोत्साहन देने का अधिकार है । इन साधारण शक्तियों के अतिरिक्त ब्रिटिश सम्राट की सारी शक्तियों का प्रयोग मंत्री ही करते हैं। ” अब सम्राट मन्त्रणा देता है और मंत्री निर्णय करते हैं। “ प्रश्न 12. वैधानिक व राजनीतिक संप्रभुता से आप क्या समझते हैं ? उत्तर * वैधानिक संप्रभुता ( कानून बनाना ) :– किसी भी देश में वहां की सर्वोच्च कानून बनाने वाली शक्ति को कानून राजसत्ताधारी कहते हैं। उसको उस देश में संविधान बनाने , संशोधन करने और रद्द करने का पूर्ण अधिकार होता है। इंग्लैंड में सम्राट सहित संसद वहां की प्रभुसत्ताधारी है। * डायसी के अनुसार :– ” ब्रिटिश संसद संवैधानिक दृष्टि से इतनी शक्तिशाली है , कि वह शिशु को प्रोढ़ करार दे सकती है। मृत्यु के बाद किसी भी व्यक्ति को राजद्रोही सिद्ध कर सकती है । वह गैर – कानूनी संतान को कानूनी करार दे सकती है । और यदि वह उचित समझे तो किसी व्यक्ति को अपने मामले में न्यायाधीश बना सकती है।” * राजनीतिक संप्रभुता :– डायसी ने कहा है कि – ” कानूनी प्रभुसत्ता के अतिरिक्त जिसे वकील मान्यता देते हैं, एक और प्रभुसत्ता होती है जिसके सामने वैधानिक प्रभुसत्ताधारी को भी झुकना पड़ता है। अतः इस प्रभुसत्ताधारी को राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी कहा जाता है। उससे हमारा आशय मतदाताओं तथा राज्य में उन सब अन्य प्रभावों से है जो लोकमत को बनाते हैं । लोकतंत्र में मतदान , समाचार पत्र , सभाओं , विरोध- प्रदर्शन , प्रतिनिधि-मंडल , हड़तालों , क्लब सोसायटियों , दबावसमूहों आदि उपायों द्वारा कानून बनाने वाली सत्ता पर प्रभाव डाला जाता है, तथा उसे नियंत्रित किया जाता है । प्रश्न 13. ” De facto and De true sovereignty ” को अन्य किस नाम से जानते हैं, एवं इसे स्पष्ट करो? उत्तर इसे विधित: तथा वस्तुतः प्रभुसत्ता के नाम से जाना जाता है। कई बार विधित: और वस्तुतः प्रभुसत्ता में अंतर किया जाता है । विधित: प्रभुसत्ताधारी वह होता है , जो वैधानिक दृष्टि से राज्य के सर्वोच्च आदेश जारी कर सकता है । कानून के अनुसार उसे शासन करने का अधिकार है, और वह अपनी आज्ञा का पालन करवा सकता है। कई बार जब किसी देश पर कोई आक्रमण हो जाता है। अथवा उसमें क्रांति हो जाती है तो विधित: प्रभुसत्ताधारी अपनी आज्ञा का पालन करवाने में असमर्थ रहता है। और कोई नया आक्रमणकारी या क्रांतिकारी नेता चाहे वह कोई बड़ा जनरल हो, अथवा तानाशाह हो या सम्राट हो , जननायक हो, वस्तुतः प्रभुसत्ताधारी बन जाता है। उदाहरण स्वरूप, 1949 ईस्वी से पूर्व चीन में मार्शल च्याँगकाई शेक की कोमिताँग पार्टी की हुकूमत थी। वही वहाँ की विधित: प्रभुसत्ताधारी थी। परंतु 1949 ईस्वी में वहाँ साम्यवादी क्रांति हुई । उसके बाद वहां साम्यवादी दल (कम्युनिस्ट पार्टी ) की हुकूमत बन गई। प्रश्न 14. सामाजिक समझौते का सिद्धांत किन विचारकों ने दिया? उत्तर हाब्स , लॉक तथा रूसो ने सामाजिक समझौते का सिद्धांत दिया। प्रश्न 15. हॉब्स , लॉक , रूसो के सामाजिक समझौता सिद्धांत को समझाने के लिए निम्न बिंदुओं पर प्रकाश डालिए ? उत्तर 1. प्राकृतिक अवस्था :– हॉब्स — स्वार्थी, झगड़ालू। लॉक — शांतिप्रिय ,दयालु , न्यायप्रिय। रूसो — न स्वार्थी , न शांतिप्रिय। 2. समझौते का कारण :– हॉब्स — अराजकता की स्थिति को खत्म करने के लिए। लॉक — प्राकृतिक नियमों व नैतिकता के लिए। रूसो — संपत्ति के अविष्कार के कारण शांति भंग होने से। 3. समझौते की शर्तें :– हॉब्स — व्यक्ति व शासक के बीच समझोता । लॉक — दो समझौते :– व्यक्ति और व्यक्ति = समाज और दूसरा समाज व शासक के मध्य। रूसो – दो समझौते — पहला व्यक्तिगत , दूसरा समाज के अंग के रूप में । 4. राज्य की स्थिति :– हॉब्स – निरंकुश। लॉक — प्रजातंत्र । रूसो — प्रजातंत्र । और अधिक नोट्स के लिए क्लिक करें और अधिक नोट्स के लिए क्लिक करें HOME NOTESJOBS