राज्य का स्वरूप
राज्य का स्वरूप
प्रश्न 1. मनुस्मृति के अनुसार राज्य की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ?
उत्तर मनु के अनुसार — मनु ने राज्य से पूर्व की अवस्था पूर्व की अवस्था का वर्णन करते हुए यह कहा है कि राज्य विहीन अवस्था में समाज के चारों और अन्याय , उत्पीड़न, भय तथा असुरक्षा का वातावरण व्याप्त था । बलवान लोग निरंकुश थे । वे निर्बलों पर नाना प्रकार के अत्याचार करते थे। निर्बल लोग असुरक्षित थे और बलवानों के भय से इधर – उधर छिपते फिरते थे । ऐसी स्थिति में ईश्वर ने राजा की सृष्टि की । एक संप्रभु संस्था के रूप में राज्य के अस्तित्व में आने के पश्चात मानव समाज शासक व शासित दो वर्गों में विभक्त हो गया।
मनु के अनुसार इस पृथ्वी पर राजा सर्वोपरि है। अतः कोई भी सत्ता उसे चुनौती नहीं दे सकती। वह ईश्वर का प्रतिनिधि व उत्तरदाई है।
प्रश्न 2. राजा द्वारा धारण दिव्य तत्त्व और उससे संबंधित कार्य बताइए।
उत्तर दिव्य तत्त्व व कार्य निम्न है :–
1. इंद्र :– इंद्र वर्षा का देवता है। जिस प्रकार इंद्र समस्त पृथ्वी पर वर्षा कर के चारों ओर खुशहाली व हरियाली लाता है । उसी प्रकार राजा को भी समस्त प्रजा पर स्नेह , समृद्धि व कल्याण करना चाहिए।
2. सूर्य :– सूर्य इस पृथ्वी से जल का हरण करता है। जिसका किसी को आभास नहीं होता है , और बदले में अपना तेज प्रकाश देता है । अतः राजा को भी प्रजा से ग्रहण करना चाहिए। परंतु कर की मात्रा इतनी हो जो प्रजा सुखपूर्वक दे सके और बदले में राजा को प्रजा के लिए कल्याणकारी कार्य करने चाहिए।
3. वायु :– वायु सर्वत्र व्याप्त होती है। उसी प्रकार राजा के गुप्तचर भी सर्वत्र व्याप्त होने चाहिए । ताकि वे राज्य की जानकारी प्राप्त कर सके, और राजा कुशल पूर्वक राज्य चला सकते हैं ।
4. यम :– यम को काल – देवता कहते हैं । जो समय आने पर प्राणियों के प्राण हरता है । वह प्रिय – अप्रिय का भेद नहीं करता। उसी प्रकार राजा को भी प्रिय- अप्रिय को भेद किए बिना अपराधी को निष्पक्ष होकर दंडित करना चाहिए।
5. वरुण :– वरुण के बंधन से मुक्ति लगभग असंभव है। अत: राजा की सैन्य शक्ति ऐसी हो कि अपराधी स्वच्छंद विचरण न कर सके और कोई अपराधी बिना दंड के मुक्त न हो ।
6. चंन्द्रमा :– जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमा को देखकर लोग हर्षित हो जाते हैं उसी प्रकार राजा के व्यवहार को देखकर लोग हर्षित हो , राजा को ऐसा व्यवहार करना चाहिए ।
7. अग्नि :– अग्नि का स्वभाव है कि वह संपर्क में आने वाली सभी वस्तुओं को जलाकर नष्ट कर देती है। अत: राजा ऐसा प्रतापी व पराक्रमी हो कि शत्रु उसके निकट आते ही नष्ट हो जाए।
8. पृथ्वी :– पृथ्वी सभी प्राणियों का समान रूप से पालन करती है। उसी प्रकार राजा भी समस्त प्रजा का समान रूप से पालन करें ।
9. कुबेर :– कुबेर धन एवं वैभव का देवता है। अत: राजा का कर्तव्य है कि वह राज्य में व्याप्त राजकोष रखें।
प्रश्न 3. मनुस्मृति के अनुसार राज्य के कार्यक्षेत्र को प्रमुख बिंदुओं द्वारा समझाइए ?
उत्तर 1. प्रजारक्षण
2. प्रजापालन
3. अर्थव्यवस्था का नियमन
4. सामाजिक व्यवस्था का निर्वाह व नियमन
5. न्याय की व्यवस्था
6. प्रशासनिक प्रणाली का निर्वाह
7. अंतरर्राज्य संबंधों का संचालन ।
प्रश्न 4. सप्तांग सिद्धांत का संक्षिप्त परिचय दीजिए ?
उत्तर हमारे राजशास्त्र पर प्रणेताओं ने राज्य के स्वरूप की भी कल्पना की है, एवं राज्य के सात अंगों की विस्तृत विवेचना की है। इसी आधार पर राज्य को सप्तांग अथवा सप्त प्रकृत माना गया है।
महाभारत में राज्य के 7 अंगों का निर्देश दिया गया है।
राजा , मंत्री , कोष (खजाना) , सेना , मित्र , दुर्ग , देश ।
ग्रंथ के नाम भेद से जहां-तहां अनेक बार इनका विवेचन किया गया है। महाभारत में ही एक अन्य प्रसंग में राजा के कर्तव्य का उल्लेख करते हुए भीष्म के मुख से व्यास जी ने कहलिया है कि राजा को उचित है कि वह 7 वस्तुओं की रक्षा अवश्य करें ।
ये 7 वस्तुएं है — राजा का अपना शरीर , मंत्री , कोष , दंड , मित्र , राष्ट्र और नगर ।
महाभारत में राज्य के सप्तांग सिद्धांत को स्वीकार कर राज्य के स्वरूप के सावयव सिद्धांत की ओर संकेत मात्र किया गया है । उसकी विधिवत व्याख्या नहीं की गई ।
प्रश्न 5. सावयव सिद्धांत में भारतीय विचारकों ने किस प्रकार विश्वास प्रकट किया ?
उत्तर भारतीय विचारकों ने राज्य के तत्वों के लिए अंग अथवा प्रकृति शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि, वे राज्य के सावयव सिद्धांत में विश्वास रखते थे। राज्य के विभिन्न अंगों के पारस्परिक संबंधों के विषय में भी महाभारत में विवेचना की गई है। महाभारत के शांति पर्व में रानी सुलभा, राजा जनक से प्रश्न करती है कि राज्य के समस्त अंग, जो विविध गुणों से युक्त है, उनमें किसको अधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया गया है कि सभी अंग समय-समय पर अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं और जिस अंग से जो कार्य सिद्ध होता है, उसके लिए उसी की प्रधानता मानी जाती है। महाभारत में भी राज्य के अंगों की तुलना त्रिदंड से करके उनके पारस्परिक सहयोग को आवश्यक सिद्ध किया गया है।
प्रश्न 6. उदारवाद का अर्थ स्पष्ट कीजिए?
उत्तर उदारवाद को प्राय: अनुदारवाद का विलोमार्थी माना जाता है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । उदारवाद के अंग्रेजी प्रयाय ‘ लिबरलिज्म ‘ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है स्वतंत्रता। अतः यह कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में , चिंतन , अभिव्यक्ति , विचार – विमर्श , विश्वास , व्यवसाय तथा सहयोग आदि में अधिक से अधिक स्वतंत्रता देने के पक्ष में है। इस प्रकार स्वतंत्रता उदारवाद का केंद्रीय तत्व है।
प्रश्न 7. उदारवाद के विकास में किन परिस्थितियों का योगदान रहा?
उत्तर * पुनर्जागरण :– 14 वीं शताब्दी में पुनर्जागरण का ऐसा दौर चला, जो इटली से प्रारंभ होकर फ्रांस , स्पेन , जर्मनी और उत्तरी यूरोप तक फैल गया। इसके परिणाम स्वरूप कला और साहित्य के क्षेत्र में चर्च के एकाधिकार का अंत हो गया। और उनमें धार्मिक उपदेशों की जगह मानवीय संवेदनाओं को प्रमुखता दी जाने लगी और राजनीति में मानववाद को बढ़ावा मिला। परिणाम स्वरूप मनुष्य की रूची परलोक की परिकल्पना से हटकर इस लोक के सौंदर्य और वैभव पर केंद्रित हो गई ।
* धर्म सुधार :– यह एक ऐसा आंदोलन था जो , 16वीं शताब्दी में यूरोप के प्रोटेस्टेंट धर्म के रूप में सामने आया । इसमें कैथोलिक चर्च के असीम अधिकारों को चुनौती दी गई , और इस बात का प्रतिपादन किया गया कि ईश्वर में आस्था रखने वाला कोई भी व्यक्ति धर्म ग्रंथों के माध्यम से ईश्वर से संपर्क स्थापित कर सकता है। इसके लिए उसे कैथोलिक चर्च जैसे किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं है। परिणामस्वरूप लोगों का विश्वास व्यक्ति की विवेक शक्ति में दृढ़ हुआ और व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला। इस आंदोलन का नेतृत्व जर्मनी के मार्टिन लूथर ( 1483 – 1546 ) ने किया।
* वैज्ञानिक क्रांति :– सोलवीं व 17वीं शताब्दी में वैज्ञानिक क्रांति के परिणामस्वरूप यह बात सामने आई कि संपूर्ण विश्व यंत्र की तरह सर्वव्यापक स्वचालित और निर्विकार नियमों से संचालित होता है। इससे सत्य का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक विधि को प्रोत्साहन मिला और यह विधि उदारवाद की आधारशिला बन गई ।
* बौद्धिक क्रांति :– 18 वीं शताब्दी के दौरान संपूर्ण पश्चिमी जगत में एक बौद्धिक क्रांति आई जिसने अपने युग के विचारों और दृष्टिकोण में बहुत परिवर्तन कर दिया । फ्रांस में वॉल्टेयर , रूसो और मॉन्टेस्क्यू ने , ब्रिटेन में लॉक ह्यूम और एडम स्मिथ ने इस विचार को बढ़ावा दिया कि मनुष्य की तर्क , बुद्धि , या विवेक जीवन के किसी भी क्षेत्र में सत्य का पता लगाने के सर्वोत्तम साधन है।
* औद्योगिक क्रांति :– औद्योगिक क्रांति आर्थिक क्षेत्र में उन परिवर्तनों की घोतक है जो वैज्ञानिक क्रांति का स्वाभाविक परिणाम है। वैज्ञानिक क्रांति ने नए नए उपकरणों का आविष्कार किया, जिन्होंने उत्पादन प्रणाली को कृषि प्रधान व्यवस्था से उद्योग प्रधान व्यवस्था बना दिया।
उद्योगीकरण ने शहरीकरण को बढ़ावा दिया। व्यापार के नये अवसरों के कारण मध्यम वर्ग का उदय हुआ। जिसमें सामंतवाद के विशेष अधिकारों को चुनौती दी और मानव अधिकार स्वतंत्रता तथा समानता आदि को प्रोत्साहित किया। और इस विचार का प्रतिपादन किया कि समाज में मनुष्यों के संबंध अनुबंध (समझौते) पर आधारित होने चाहिए, परंपरा पर नहीं । यह उदारवाद का आरंभिक दौर था ।
* निरंकुशतावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया :– 16वीं व 17वीं शताब्दी का समय यूरोप में निरंकुश राजतंत्र का समय था। उस समय अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि करने वाले राजा यूरोप के अनेक देशों में होते हुए जिन्होंने राज्य के दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस स्थिति में व्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व न था। अत: ऐसी विचारधारा की आवश्यकता महसूस की गई जो व्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व का प्रतिपादन कर सके। उदारवादी विचारधारा का अभ्युदय इसी कारण से हुआ।
प्रश्न 8. उदारवाद के प्रकारों के बारे में बताइए ?
उत्तर उदारवाद के ऐतिहासिक विकास के आधार पर दो स्तर देखे जा सकते हैं । प्रथम प्राचीन उदारवाद तथा द्वितीय आधुनिक उदारवाद।
1. प्राचीन उदारवाद :– प्राचीन उदारवाद को नकारात्मक उदारवाद भी कहते हैं। क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राज्य की नकारात्मक भूमिका पर बल दिया जाता है। इंग्लैंड में प्रारंभिक स्तर पर उदारवाद को जो रूप सामने आया उसे प्राचीन उदारवाद कहा जाता है। यह वैयक्तिक अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा की मांग तक सीमित था । इस उदारवाद के विकास में जेर्मी बेंथम (1748 से 1832) , एडम स्मिथ ( 1723 – 1790 ) तथा हरबर्ट स्पेंसर ( 1820 — 1903 )का विशेष योगदान रहा है —
1. एडमस्मिथ :– एडम स्मिथ को अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है । अपनी प्रसिद्ध कृति ” वैल्थ ऑफ नेशन् ” 1776 के अंतर्गत एडम स्मिथ ने अहस्तक्षेप की नीति और व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थन किया है। एडम स्मिथ ने लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति में व्यापार की सहज प्रवृत्ति पाई जाती है। जो उसे अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने के लिए प्रेरित करती है उनका कहना था कि व्यापारी स्वयं अपने हित को अच्छी तरह समझता है। अतः सरकार को उद्योग व्यापार के मामले में अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण करना चाहिए। ऐसी स्थिति में सरकार के केवल तीन ही कार्य रह जाते हैं।
प्रथम – विदेशी आक्रमण से राष्ट्र की रक्षा,
द्वित्तीय – न्याय का प्रवर्तन ,
तृतीय – सार्वजनिक निर्माण के कार्य।
2. बेंथम :– सार्वजनिक नीति को एक ही कसौटी पर रखना चाहिए और वह है — ” अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख ।” बेंथम के अनुसार , प्रकृति ने मनुष्य को दो शक्तियों के अधीन रखा है, जो कि सुख और दुख है ।
मनुष्य सदैव उपयोगी कार्य करता है, अनुपयोगी कार्यो से बचना चाहता है। अतः विधि निर्मात्री संस्था को वे ही कानून बनाने चाहिए , जो अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को बढ़ावा देते हो। सामान्य हित को ध्यान में रखते हुए लोगों पर उचित प्रतिबंध लगाना तथा अपराधियों को दंड देना भी सरकार का कार्य है। परंतु कानून का पालन करने वाले नागरिकों के मामले में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
* स्पेन्सर :– इंग्लैंड के विचारक हरबर्ट स्पेंसर ने न्यूनतम शासन के सिद्धांत को चरम सीमा तक पहुंचाया। समाज के समर्थ सदस्यों का यह कर्तव्य नहीं कि वे निर्बल और असमर्थ सदस्यों को सहारा देकर समाज की क्षति होने दें। स्पेन्सर ने डार्विन के इस सिद्धांत को आधार बनाया कि ‘ जीवन संघर्ष में योग्यतम की विजय होती है।’ राज्य को केवल वे ही कार्य करने चाहिए। जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता बनी रहे। जैसे :–
1. विदेशी आक्रमणों से व्यक्ति की सुरक्षा ,
2. आंतरिक उपद्रवियों से नागरिकों की सुरक्षा , तथा
3. कानून के अनुसार किए गए समझौतों का पालन करवाना ।
2. आधुनिक उदारवाद :– 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्राचीन उदारवाद और उससे जुड़ी चिंतन परंपरा में निरंतर परिवर्तन होता गया। इसमें राज्य की नकारात्मक भूमिका के स्थान पर उसके सकारात्मक पक्ष पर बल दिया गया। अतः इसे ‘ सकारात्मक उदारवाद ‘ भी कहते हैं।
प्राचीन उदारवाद के विपरीत आधुनिक उदारवाद यह विश्वास करता है कि , व्यक्तियों के परस्पर संबंधों को नियमित और संतुलित करने के लिए राज्य को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए।
1. जे. एस. मिल :– मिल ने प्रारंभ में राज्य की अहस्तक्षेप की नीति तथा व्यक्तिवाद का समर्थन किया। किंतु बाद में उसने इसका संशोधन करते हुए राजनीतिक क्षेत्र में प्रतिनिधि और संवैधानिक शासन का समर्थन किया। किंतु आर्थिक क्षेत्र में उसने कल्याणकारी राज्य के विचार को बढ़ावा दिया। आचरण की स्वतंत्रता के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए मिल ने व्यक्ति के आचरण के 2 आयाम बताए हैं :– प्रथम ‘ आत्मपरक ‘ तथा द्वितीय ‘ अन्यपरक ‘।
आत्मपरक गतिविधियों का संबंध अपने आपसे होता है । तथा इससे दूसरे लोग प्रभावित नहीं होते । अतः राज्य को व्यक्ति की आत्मपरक गतिविधियों में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। व्यक्ति की ‘ अन्यपरक ‘ गतिविधियों का प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है। अतः सामाजिक हित में राज्य को ऐसी गतिविधियों का नियमन करना चाहिए । अपनी कृति ” प्रिंसिपल ऑफ पॉलीटिकल इकोनामी ” में मिल ने संपत्ति के अधिकार को सीमित किए जाने का समर्थन किया।
2. टी. एच. ग्रीन :– टी. एच.ग्रीन ने रूसो, कांट तथा हिगल जैसे आदर्शवादी विचारकों का अनुसरण करते हुए उदारवादी परंपरा को ‘ कल्याणकारी राज्य ‘ की दिशा में आगे बढ़ाया। ग्रीन ने नैतिक स्वतंत्रता को मनुष्य का उपयुक्त गुण स्वीकार किया । अधिकारों का सही स्रोत समुदाय की नैतिक चेतना है , और यह नैतिक चेतना ही राज्य की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है।
अतः राज्य आदर्श उद्देश्यों की पूर्ति का साधन है, स्वयं आदर्श उद्देश्य नहीं । ग्रीन राज्य की सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही भूमिकाओं को स्वीकार करता है। नकारात्मक रूप में वह यह चाहता है कि राज्य व्यक्ति को वह कार्य करने दे जो कार्य करने योग्य है । और इन कार्यों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को राज्य दूर करें। सकारात्मक दृष्टि से वह चाहता है कि नैतिक विकास के लिए राज्य जहां आवश्यक समझे वहां नागरिकों के कार्य में हस्तक्षेप करें और आवश्यकता पड़ने पर बल प्रयोग भी करें।
3. हॉबहाउस के विचार :– हॉबहाउस ने उदारवाद और समाजवाद के उस संयोग को बढ़ावा दिया जिसका सूत्रपात मिल ने किया। प्राचीन उदारवाद राज्य के कार्य क्षेत्र को सीमित करना चाहता था , किंतु हाबहाउस ने यह अनुभव किया कि, लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विकास के कारण राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि हुई है । जिनकी उदारवाद उपेक्षा नहीं कर सकता।
अपनी कृति ‘ एलिमेंट्स ऑफ सोशल जस्टिस ‘ में हाउस में लिखा है कि ” स्वतंत्रता की आधारशिला सामाजिक बंधन की आध्यात्मिक प्रकृति और सर्वहित का युक्तियुक्त स्वरूप है।”
4. लॉस्की :– इस दौर में अनेक परिवर्तन हो रहे थे जैसे प्रथम विश्वयुद्ध , रूस में समाजवादी क्रांति , राष्ट्र संघ की स्थापना , इटली में फासीवाद का उदय , तथा यूरोप में महामंदी इत्यादि । इन परिस्थितियों में लॉस्की ने पूंजीवाद के संकट के प्रति विशेष चिंता व्यक्त की, किंतु लॉस्की ने साम्यवादी मार्ग का समर्थन नहीं किया। उसने मजदूरों की एकता पर तो बल दिया, किंतु यह आशा प्रकट की कि वे उदार लोकतंत्र के ढांचे में ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
5. आर.एम. मैकाईवर :– मैकाईवर लॉस्की का समकालीन लेखक था। इसने अपनी कृति ” दी मॉडर्न स्टेट ” के अंतर्गत आधुनिक राज्य की उत्पत्ति और विकास पर विचार प्रकट करते हुए कहा कि आधुनिक राज्य का कार्य विभिन्न साहचर्यो के हितों में सामंजस्य स्थापित करना है।
प्रश्न 9. उदारवाद की प्रमुख मान्यताओं को संक्षिप्त में समझाइए ?
उत्तर 1. मनुष्य के विवेक में विश्वास :– उदारवाद मनुष्य के विवेक में विश्वास करता है । मध्य युग में मनुष्य के जीवन के सभी क्षेत्रों में उस पर किसी न किसी बाह्य सत्ता का नियंत्रण था । उदारवाद के अनुसार ऐसी स्थिति में मनुष्य की आत्मा और विवेक दोनों ही कुंठित हो जाते हैं जो कि व्यक्ति और समाज दोनों के ही हित में नहीं रहता। अतः व्यक्ति के लिए यही उचित है कि वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में अंधाधुकरण न करें और अपने विवेक से काम लें । इस प्रकार समाज की जो स्थिति होगी वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी होगी ।
2. ऐतिहासिक परंपराओं का विरोध :– उदारवाद का विकास मध्ययुगीन सामाजिक व्यवस्था तथा राज्य व चर्च की निरंकुश व मनमानी सत्ता के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है । उदारवादियों का विचार है कि विवेक के अनुसार तथा नए आदर्शों के आधार पर समाज का नव निर्माण किया जाना चाहिए।
3. स्वामी मुक्त व्यक्ति की धारणा :— उदारवादियों के अनुसार मनुष्य प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र तथा अपने आप में परिपूर्ण है । अतः वह अपना स्वामी स्वयं है। उसका कोई अन्य स्वामी नहीं हो सकता ।
4. व्यक्ति साध्य , समाज व राज्य साधन :– उदारवादी व्यक्ति को साध्य, समाज व राज्य को साधन मानते हैं। उसके अनुसार व्यक्ति का नैतिक और आध्यात्मिक कल्याण और उसका विकास सबसे महत्वपूर्ण बात है। अतः किसी भी समुदाय, समाज तथा राज्य की कोई भी व्यवस्था, परंपरा अथवा कानून ऐसा नहीं हो सकता, जिनके नाम पर व्यक्ति का बलिदान किया जा सके, क्योंकि यह सब व्यक्ति के लिए होते हैं व्यक्ति इनके लिए नहीं। अतः इन सब की सार्थकता उसी रूप में है जहाँ तक ये व्यक्ति के हितों की पूर्ति में सहायक हों और यदि वे अपना यह उद्देश्य पूरा नहीं करते तो उन्हें नष्ट भी किया जा सकता है, अथवा बदला जा सकता है।
5. समाज व राज्य का यांत्रिक रूप :– उदारवादियों के अनुसार राज्य व समाज कृत्रिम व मनुष्य कृत है । इनकी रचना व्यक्तियों ने अपनी इच्छानुसार अपनी सुविधा के लिए की है। अतः आवश्यकतानुसार इसमें संशोधन व परिवर्तन भी कर सकते हैं ।
6. व्यक्ति के अधिकारों के प्राकृतिक रूप की मान्यता :– उदारवाद के अनुसार व्यक्ति के अधिकार प्राकृतिक हैं जिनका उल्लंघन करने का अधिकार समाज व राज्य को नहीं है। व्यक्ति के ये प्राकृतिक अधिकार ही उसे स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं । लॉक के अनुसार , ” जीवन, संपत्ति व स्वतंत्रता व्यक्ति के मुख्य प्राकृतिक अधिकार है जो कि राज्य या समाज द्वारा नहीं दिए गए । अतः राज्य समाज ना तो इसमें कोई कमी कर सकते हैं और ना ही उन्हें समाप्त कर सकते हैं।”
7. स्वतंत्रता के आदर्श की मान्यता :– उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन निष्पक्ष रूप से करता है। उसकी मान्यता है कि व्यक्ति प्रकृति से ही स्वतंत्र उत्पन्न होता है। अतः स्वतंत्रता उसका जन्मसिद्ध अधिकार है । अतः उसके ऊपर किसी ऐसी सत्ता का नियंत्रण नहीं होना चाहिए जो मनमाने ढंग से उसकी स्वतंत्रता पर कोई अंकुश लगा सके। उदारवाद जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन करता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता के महान समर्थक हाॅब हाउस ने व्यक्ति की 9 प्रकार की स्वतंत्रताओ पर चर्चा की है :—
1. नागरिक स्वतंत्रता , 2. व्यक्तिक स्वतंत्रता, 3. आर्थिक स्वतंत्रता , 4. वित्तीय स्वतंत्रता , 5. पारिवारिक स्वतंत्रता, 6. सामाजिक स्वतंत्रता, 7. राजनीतिक स्वतंत्रता, 8. जातीय स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय 9. अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्रता।
8. समानता के आदर्श की मान्यता :– व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ – साथ उदारवादी व्यक्ति की समानता का भी समर्थन करते हैं । इनके अनुसार व्यक्ति समान प्राकृतिक अधिकार लेकर उत्पन्न होता है। अतः इन्हें समान माना जाना चाहिए । जाति, लिंग, भेद , धर्म अथवा भाषा आदि के आधार पर राज्य की ओर से उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
9. राज्यों के उद्देश्यों व कार्यो के संबंध में परिवर्तनशील दृष्टिकोण :– राज्य के उद्देश्यों व कार्यों के संबंध में उदारवादियों के विचारों में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। इस संबंध में उनके विचारों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। प्रथम – परंपरागत दृष्टिकोण , तथा द्वितीय – आधुनिक दृष्टिकोण ।
10. लोकतंत्रीय शासन प्रणाली का समर्थन :– व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा समानता का समर्थक होने के कारण उदारवाद स्वाभाविक रूप से लोकतंत्र की समर्थक विचारधारा है क्योंकि उसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता व उसके अधिकारों की रक्षा का सर्वोत्तम उपाय यही है कि, शासन की शक्ति जनता के हाथों में हो। तथा कोई व्यक्ति या वर्ग जनता पर मनमाने ढंग से शासन ना करें ।
11. धर्मनिरपेक्ष राज्य के विचार की मान्यता :– उदारवादी विचारधारा का उदय उस युग में हुआ , जब चर्च तथा शासन दोनों ही व्यक्ति पर अत्याचार करते थे और व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व का कोई महत्व न था। अतः उदार वादियों के इस विचार को पर्याप्त बल मिला कि धर्म व राज्य के इस अनुचित गठबंधन को समाप्त किए बिना व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा नहीं की जा सकती। अतः उदारवादियों ने धार्मिक स्वतंत्रता व सहिष्णुता तथा राज्य की ओर से धार्मिक क्षेत्र में हस्तक्षेप के आदर्श का प्रतिपादन किया। उसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह आवश्यक है कि राज्य धर्मनिरपेक्ष हो।
12. शास्त्रीय आत्मनिर्णय के सिद्धांत का समर्थन :– उदारवाद के अनुसार बात अत्याचारी शासन व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए हानिकारक है। अतः अत्याचारी विदेशी शासन से मुक्ति के लिए किसी राष्ट्र द्वारा किया गया संगठन संघर्ष उचित है । उदारवादियों के अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता तभी रह सकती है, जब शासन उसकी सहमति व पसंद का हो। प्रत्येक राष्ट्र की जनता को राष्ट्रीय सरकार की स्थापना करने का अधिकार है। क्योंकि उसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता संभव होती है।
प्रश्न 10. वैज्ञानिक समाजवाद किसने दिया?
उत्तर कार्ल मार्क्स ने।
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