अध्याय 6 विश्व मानव अधिवास
अध्याय 6 विश्व मानव अधिवास
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अर्थ व परिभाषा
मानव अधिवास:- मानव अपने रहने (आवास) के लिए मकान बनाता है इन मकानों या आवासों के संगठित समूह को अधिवास या मानव बस्ती कहते हैं। यह एक झोपड़ी या भव्य इमारत हो सकती है।
प्रोफेसर विडाल-डी-ला-ब्लॉश के अनुसार – “मानव अधिवास मानव द्वारा स्वयं के लिए अपने आवास एवं अपनी संपत्ति को रखने के लिए निर्मित संरचना से हैं।”
उत्पत्ति के आधार पर मानव अधिवास के प्रकार :- (1) अस्थायी अधिवास
(2) स्थायी अधिवास
(1) अस्थायी अधिवास :- प्राचीन काल में मानव के द्वारा निर्मित कच्चे मकान जो घास, लकड़ी, मिट्टी, केलू आदि से बनाए जाते थे। अस्थायी अधिवास कहलाते हैं। यह अधिवास जनजातियों के द्वारा बनाए जाते थे। यह जनजातियां अपना जीवन घुमक्कड़ रूप से व्यतीत करती थी।
जैसे :- ध्रुवीय या टुण्ड्रा प्रदेशों में रहने वाली एस्किमो जनजाति, मध्य एशिया के स्टैपीज मैदानों में रहने वाले मैदानों में खिरगीज जनजाति।
(2) स्थायी अधिवास :- मानव के विकास क्रम में जब से मानव समूह में रहने लगा है तभी से वह स्थायी अधिवास बनाने लगा है। इसकी शुरुआत उत्तर-पाषाण काल से मानी जाती है। यह अधिवास पत्थर, सीमेंट, चूने, ईट, रेत आदि से बने पक्के मकान होते हैं।
स्थायी अधिवास स्थापित होने के कारण निम्न कारण हैं :-
(1) सुरक्षा
(2) धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कार्यों के लिए।
(3) भावी उन्नति की संभावना
(4) बाहृय विश्व से संबंध।
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मानव अधिवास के निर्माण के उद्देश्य :-
(1) भौतिक वातावरण या मौसमी परिस्थितियों से सुरक्षा हेतु।
(2) उपयोगी सामग्री व खाद्यान्न को रखने के लिए।
(3) जंगली जानवरों तथा पशुओं से सुरक्षा हेतु।
(4) पारिवारिक तथा विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए।
(5) धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व शैक्षणिक कार्यों के लिए।
मानव अधिवासों का वर्गीकरण :- मानव अधिवास को प्राकृतिक दशाओं और आधारभूत कार्यों के आधार पर दो वर्गों में बांटा गया है।
(1) ग्रामीण अधिवास (2) नगरीय अधिवास
ग्रामीण अधिवास :- वह अधिवास जहां की अधिकांश जनसंख्या प्राथमिक व्यवसाय जैसे – कृषि, पशुपालन, लकड़ी काटना, मछली पालन, खनन, खाद्य संग्रहण आदि कार्य करती हैं, ग्रामीण अधिवास कहलाती हैं।
ग्रामीण अधिवास की विशेषताएं :-
(1) ग्रामीण अधिवासों में मकान, खेतों के बीच तथा दूर-दूर होते हैं।
(2) इन अधिवासों में आधारभूत सुविधाओं का अभाव होता है।
(3) यह अधिवास अधिकांशत: छोटे तथा कच्चे होते हैं।
(4) इन अधिवासों में संयुक्त परिवार पाया जाता है।
(5) इन अधिवासों में सामाजिक ढांचा सुदृढ़ होता है।
(6) इनमें सामूहिक हित प्रधान होता है।
(7) इन अधिवासों के मकानों में मनुष्य तथा पशु जैसे गाय, बैल, बकरी आदि एक साथ रहते हैं।
(8) यहां जनसंख्या घनत्व कम पाया जाता है।
(9) रोजगार के अवसर सीमित होते हैं।
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नगरीय अधिवास :-
वह अधिवास जहां की अधिकांश जनसंख्या द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक, पंचम व्यवसाय जैसे -निर्माण उद्योग, परिवहन, व्यापार, संचार, शिक्षा, चिकित्सा, बैंकिंग, प्रशासन आदि सेवा व्यवसाय करती हैं। नगरीय अधिवास कहलाते हैं।
नगरीय अधिवास की विशेषताएं :-
(1) यह अधिवास बड़े, पक्के, बहुमंजिला होते हैं।
(2) इन अधिवासों में आधारभूत सुविधाएं विकसित होती हैं।
(3) इन अधिवासों में एकल परिवार पाया जाता है। (4) यह अधिवास पास-पास तथा सघन होते हैं।
(5) इन अधिवासों में सामाजिक ढांचा कमजोर होता है।
(6) इन अधिवासों में व्यक्तिगत हित प्रधान होते हैं।
(7) इन अधिवासों में मकानों में पशुपालन नहीं किया जाता है।
ग्रामीण अधिवासों के प्रकार :-
मकानों की संख्या और उनके बीच की दूरी के आधार पर किये गये विभाजन को, अधिवासों का प्रकार कहा जाता है।
ग्रामीण अधिवासों के निम्नलिखित 4 प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं :-
(1) सघन या गुच्छित अधिवास
(2) प्रकीर्ण या एकाकी अधिवास
(3) मिश्रित अधिवास
(4) पल्ली अधिवास
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(1) सघन या गुच्छित अधिवास :-
इन ग्रामीण आदिवासियों को पुंजित, संहत, संकेंद्रित, संकुलित आदि नामों से भी जाना जाता है। सघन ग्रामीण अधिवास उपजाऊ मैदानी भागों, समतल तथा पर्याप्त जल की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में विकसित होते हैं। जिनमें आवास गृह पास-पास होते हैं।
विशेषताएं :-
(1) अधिवास प्राय: खेतों के मध्य किसी ऊँचे एवं बाढ से सुरक्षित स्थानों पर बसे होते हैं।
(2) सभी आवास पास-पास बने होते हैं।
(3) सभी आवास एक स्थान पर संकेंद्रित होते हैं।
(4) सामाजिक प्रगाढ़ता होने से एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागी होते हैं।
(5) इनमें आवासों की संख्या सैकड़ों तक हो सकती हैं।
(6) इनकी जनसंख्या उपलब्ध संसाधनों के आधार पर अधिक हो सकते हैं।
(7) भारत में सघन ग्रामीण अधिवास गंगा-सतलज के मैदान, मालवा के पठार, विन्धयन पठार, नर्मदा घाटी और राजस्थान के मैदानी भाग में पाए जाते हैं।
(2) प्रकीर्ण या एकाकी अधिवास :-
ऐसे अधिवास छितरे और बिखरे होते हैं। इसलिए आवास एक दूसरे से दूर और कृषि भूमि को छोड़कर बनाए जाते हैं।
विशेषताएं :-
(1) आवास एक दूसरे से दूर होते हैं ।
(2) व्यक्ति एकाकी रूप में रहते हैं ।
(3) व्यक्ति स्वतंत्र जीवनयापन के आदी होते हैं ।
(4) एक-दूसरे के सहयोग की भावना कम होती हैं।
(5) कृषि में संलग्न जातियों में ऊंच-नीच की भावना होती हैं ।
(6) दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, राजसमंद, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और बांसवाड़ा जिलों में तथा मरुस्थली प्रदेश में प्रकीर्ण अधिवास प्रमुखता से पाए जाते हैं।
(3) मिश्रित अधिवास :-
इन अधिवासों को अर्ध सघन या अर्ध केंद्रीय अधिवास भी कहा जाता है। यह सघन व प्रकीर्ण अधिवासों के बीच की अवस्था होती है। इनकी उत्पत्ति पर्यावरणीय कारणों के स्थान पर पारिवारिक कारण उत्तरदायी होते हैं। जैसे – सांगोद (कोटा) तहसील का खुर्द गांव।
(4) पल्ली/नंगला/ढाणी/पुराना अधिवास :-
इस प्रकार के अधिवासों में आवास एक-दूसरे से अलग किंतु एक ही बस्ती में बसे होते हैं। इसलिए उन सबका नाम एक रहता है। बस्ती के अलग-अलग भागों में अलग-अलग बस्तियों के लोग रहते हैं। जैसे – पर्वतीय प्रदेशों की निचली घाटियों में।
ग्रामीण अधिवासों के प्रतिरूप :- आदिवासियों के बसाव की आकृति के आधार पर किये गये विभाजन को अधिवासों के प्रतिरूप कहा जाता है।
ग्रामीण अधिवासों के निम्नलिखित प्रतिरूप निर्धारित किए जा सकते हैं :-
(1) रेखीय प्रतिरूप :- जब ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क मार्ग, रेल मार्ग, नहर, नदी घाटी में या सागर तट के सहारे बस्ती का विकास होता है, तब रेखीय प्रतिरूप वाले अधिवास का निर्माण होता है। इस प्रतिरूप में आवास पास-पास एवं पंक्तिबद्ध होते हैं। जैसे – गंगा-यमुना के मैदान एवं मध्य हिमालय क्षेत्र में इस प्रकार के अधिवास पाए जाते हैं। पंक्तिनुमा, मार्गोन्मुख प्रतिरूप भी कहते हैं।
(2) तीर प्रतिरूप :- किसी अंतरीप के शीर्ष पर नदी के विसर्प के सहारे या दो आब के बीच विकसित अधिवास का प्रतिरूप प्रायः तीरनुमा होता है। जैसे – दक्षिण भारत में कन्याकुमारी और उड़ीसा में चिल्का झील तट पर बने अधिवास आदि।
(3) त्रिभुजाकार प्रतिरूप :-
ऐसे संगम स्थलों पर अधिवास को विकसित होने के लिए दोनों नदियों, नहरों या सड़कों द्वारा निर्मित त्रिभुज के अंदर की भूमि पर ही अधिवास विकसित हैं। भारत में हरियाणा और पंजाब में ऐसे अधिवास मिलते हैं।
(4) आयताकार या चौक पट्टी प्रतिरूप :-
जब दो सड़कें आपस में मिलती हैं और उनके मिलन स्थल से दोनों सड़कों के किनारे लंबवत गलियों का निर्माण होता है, तब आयताकार प्रतिरूप बनते हैं। सड़के समकोण पर कटती हैं विश्व में समस्त उपजाऊ मैदानी भागों में ऐसे प्रतिरूपों का विकास होता है।
(5) अरीय प्रतिरूप :-
जब किसी गांव में एक स्थान पर अनेक दिशाओं से कच्ची सड़कें या पक्की सड़के मिलती हैं तो मिलन स्थान से त्रिज्याकार मार्गों पर मकानों का निर्माण होता है। उदाहरण – भारत में गंगा के ऊपरी मैदान, तमिलनाडु राज्य ।
(6) वृत्ताकार प्रतिरूप :-
प्रायः किसी झील, तालाब, कुएँ, किले, धार्मिक स्थल या चौपाल के चारों ओर मकानों के बसने से बस्ती का आकार वृत्ताकार हो जाता है, इसे वृत्ताकार प्रतिरूप कहते हैं।
(7) तारा प्रतिरूप :-
तारा प्रतिरूप प्रारंभ में अरीय प्रतिरूप के रूप में विकसित होता है, किंतु बाद में बाहर की ओर जाने वाली सड़कों के किनारे मकान बनने से इसकी आकृति तारे जैसी हो जाती है। इसलिए इसे तारा प्रतिरूप कहा जाता है।
(8) पंखा प्रतिरूप :-
जब किसी गांव में केंद्रीय स्थल के चारों और मकान बनाते हैं। इसके बाद बस्ती का विकास सड़क के किनारे रेखीय प्रतिरूप में होने से पंखानुमा प्रतिरूप विकसित होता है।
(9) अनियमित प्रतिरूप :-
मानव द्वारा अपनी सुविधाजनक बिना किसी योजना के मकानों का निर्माण होने से, आकार रहित अधिवास विकसित होता है, जिसे अनाकार या अनियमित प्रतिरूप कहते हैं। भारत में अधिकांश गांव इसी श्रेणी में आते हैं। राजस्थान के बारां जिले में लिसाड़ी गांव आनाकार प्रतिरूप का उदाहरण है।
(10) सीढीनुमा प्रतिरूप :-
इस प्रकार के गांव पर्वतीय ढालों पर होते हैं जिनमें मकान परस्पर सटे हुए तथा दूर-दूर दोनों ही रूपों में मिलते हैं। इन मकानों की पंक्तियां ढाल के अनुसार कई स्तरों में दिखाई देती हैं। उदाहरण हिमालय, रॉकीज, एंडीज और आल्पस पर्वत, राजस्थान की अरावली पर्वतमाला में ग्रामीण बस्तियां।
(11) मधु छत्ता प्रतिरूप :- भारत में आदिवासी जनजातियों के गुंबदनुमा झोपडियों के गांव टोडा जनजाति, आंध्र प्रदेश के समुद्र तटीय मछुआरों के गांव तथा दक्षिणी अफ्रीका के जुलू लोग इस प्रकार के प्रतिरूप में निवास करते हैं जो दूर से मधुमक्खी के जैसा दिखाई देता है।
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ग्रामीण अधिवासों की समस्याएं :-
(1) आवागमन के साधनों का अभाव।
(2) स्वच्छ पेयजल का अभाव
(3) स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव
(4) विद्युत आपूर्ति का अभाव
(5) रोजगार के अवसर नहीं होना
(6) सूचना तकनीक एवं दूरभाष सुविधाओं का अभाव
(7) उच्च तथा तकनीकी शिक्षा संस्थाओं का अभाव
नगरीय बस्तियों का वर्गीकरण :-
(1) जनसंख्या का आकार :- अधिकांश देशों में नगरीय क्षेत्रों को परिभाषित करने के लिए जनसंख्या आकार को प्रमुख माना है। विश्व के अलग-अलग देशों में नगरीय क्षेत्र की श्रेणी में आने के लिए जनसंख्या की न्यूनतम सीमा डेनमार्क, स्वीडन एवं फिनलैंड में 250 , संयुक्त राज्य अमेरिका एवं थाईलैंड में 2500, जापान में 3000 और भारत में 5000 व्यक्ति निर्धारित हैं। जनसंख्या घनत्व भी 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर होना चाहिए। एवं प्राथमिक व्यवसाय में लगी जनसंख्या को भी देखा जाता है।
(2) व्यवसायिक संरचना :- नगरीय बस्ती के लिए जनसंख्या के आधार के अतिरिक्त इटली जैसे कुछ देशों में 50% से अधिक जनसंख्या गैर कृषि कार्यों में संलग्न होना चाहिए। भारत में यह मापदंड 75% है।
(3) प्रशासन :- कुछ देशों में किसी बस्ती को नगरीय बस्ती में सम्मिलित करने के लिए प्रशासनिक ढांचे को ही मापदंड माना जाता है। जैसे भारत में किसी नगर में नगर पालिका, नगर परिषद, छावनी बोर्ड अधिसूचित क्षेत्र समिति होने पर उसे नगरीय बस्ती माना जाता है।
नगरीय अधिवासों के प्रकार :-
(1) एक लाख से अधिक किंतु दस लाख से कम जनसंख्या वाले अधिवास नगर कहलाते हैं। इनमें 50% से अधिक जनसंख्या गैर प्राथमिक कार्यों में संलग्न होती है। जैसे भारत में राजस्थान का बीकानेर नगर।
(2) महानगर :- दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले अधिवास को महानगर कहा जाता है। ये औद्योगिक, व्यापारिक, प्रशासनिक एवं शैक्षिक गतिविधियों के केंद्र होते हैं। जैसे राजस्थान में जयपुर, जोधपुर और कोटा नगर। इन्हें मेट्रोसिटी भी कहते हैं।
(3)सन्नगर :- 1915 मे पैट्रिक गिडिज ने इस शब्दावली का प्रयोग किया था। यह विशाल विकसित नगरीय क्षेत्र होते हैं। जो अलग-अलग नगरों या शहरों के आवास से मिलकर विशाल नगरीय क्षेत्र में बदल जाता है। ग्रेटर लंदन, टोकियो, शिकागो आदि इसके उदाहरण हैं। भारत में ग्वालियर, लश्कर-मुरार, दिल्ली-गुड़गांव, दिल्ली-नोएडा, सन्नगर के उदाहरण हैं।
(4) वृहत नगर :- अंग्रेजी में इसे मेगालोपोलिस कहते हैं। इसका अर्थ विशाल नगर होता है। इसका प्रयोग सन् 1857 में जीन गोटमेन ने किया था। ये अत्यंत बड़े नगर होते हैं, जिनकी जनसंख्या 50 लाख से अधिक होती है। इन नगरों को विश्व नगरी भी कहते हैं। जैसे ग्रेटर लंदन, टोक्यो, पेरिस, न्यूयॉर्क, मास्को, बीजिंग, कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई आदि।
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नगरीय अधिवासों की समस्याएं :-
(1) अत्यधिक जनसंख्या घनत्व एवं नगरों का बढ़ता आकार :-
ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि के कारण रोजगार की कमी होने से युवा शक्ति रोजगार की तलाश, नौकरियों के लिए नगरों में बसने लगी है। फलस्वरूप नगरों का आकार व जनसंख्या घनत्व तीव्रगति से बढ़ रहा है।
(2) गंदी बस्तियों का प्रादुर्भाव :-
नगरों में जनसंख्या तथा घनत्व में वृद्धि से आवासीय भवनों की कमी से गंदी बस्तियों का प्रादुर्भाव होने लगा है। ये बस्तियां प्रकाश, वायु एवं स्वच्छ पेयजल की सुविधाओं से वंचित हैं। मुंबई में लगभग 10% लोग गंदी बस्तियों में निवास करते हैं और 60% लोग सड़कों पर रात गुजारते हैं।
(3) पर्यावरण प्रदूषण :- नगरीयकरण के कारण नगरों में अनेक प्रकार की पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएँ बढ़ रही है। उद्योगों की चिमनियों से निकलता काला जहरीला धुआं वायुमंडल को प्रदूषित करता है। जो मानव और पशुओं के साथ वनस्पति पर भी प्रभाव डालता है।
भारत में दिल्ली, मुंबई तथा कोलकाता में कुछ वर्षों में ही वायु प्रदूषण दोगुना हो गया है।
(4) उपभोक्ता वस्तुओं का उच्च मूल्य :-
नगरों में दैनिक उपभोग की वस्तुओं जैसे दूध, फल, सब्जी आदि समीपवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों से आती है। दूर क्षेत्रों से लाने में परिवहन व्यय, दलाली और मुनाफा वसूली से यह पदार्थ महंगे होने से उच्च मूल्य पर उपलब्ध होते हैं।
(5) खाद्य पदार्थों में मिलावट :-
नगरों में व्यापारी अधिक लाभ कमाने के लिए खाद्य पदार्थों में मिलावट करते हैं। मिलावटी भोजन सामग्री नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। और नागरिकों को अनेक बीमारियों का सामना करना पड़ता है।
(6) अपराधों का बढ़ता स्तर :-
ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की तलाश में नगरों में आने वाली जनसंख्या में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जिससे नगरों में लिंगानुपात का संतुलन बिगड़ जाता है, परिणामस्वरूप अपहरण, दुष्कर्म, हत्या, जेब काटने, चोरी, बैंक लूटने आदि की घटनाएं बढ़ जाती हैं।
(7) तीव्र सामाजिक-आर्थिक विषमता एवं सामाजिक असहयोग :-
नगरों में मकानों और संसाधनों की उपलब्धता में अंतर होने से सामाजिक-आर्थिक विषमता दृष्टिगोचर होती है। महानगरों में एक तरफ गगनचुंबी, विशाल, वातानुकूलित इमारतें दिखाई देती हैं। दूसरी तरफ फुटपाथ में खुले आसमान के नीचे जीवन का संघर्ष दिखाई देता है।
(8) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं की कमी :-
नगरों में जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रदूषण बढ़ने से नागरिक रोग ग्रसित हो जाते हैं। जनसंख्या के अनुपात में चिकित्सा और चिकित्सालय की कमी होती है।
कच्ची बस्तियों की समस्याओं हेतु समाधान :-
(1) सरकार द्वारा निम्नतम दर पर आवास सुविधाएं उपलब्ध करवाना।
(2) नलो या टैंकरों द्वारा स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति न्यूनतम दर पर या निशुल्क की जानी चाहिए।
(3) ग्रामीण क्षेत्रों के महानरेगा की तरह न्यूनतम मजदूरी पर निर्धारित कर रोजगार उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
(4) कच्ची बस्ती में ही विद्यालय खोलकर बच्चों की शिक्षा हेतु समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।
(5) कच्ची बस्तियों के पास सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोलकर निशुल्क चिकित्सा उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
(6) ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के साधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए। जिससे नगरीय क्षेत्रों में प्रवास कम से कम हो।
(7) चौडी सड़कों का निर्माण करना।
(8) भूमि की उपलब्धता होने पर बगीचा की व्यवस्था करना।
(9) स्वरोजगार के लिए ऋण उपलब्ध कराना।
(10) परिवार कल्याण कार्यक्रम अपनाने पर जोर देना आदि।
(11) कानून एवं व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए रखना।
मुंबई की धारावी बस्ती का विशेष अध्ययन :-
मुंबई की धारावी कच्ची बस्ती (स्लम) एशिया की विशालतम कच्ची बस्ती है। विश्व के अन्य देशों की कच्ची बस्तियों की तरह यहां का जनजीवन गौर नारकीय हैं।
निम्न प्रकार से वर्णित है :-
(1) धारावी बस्ती की स्थापना :- 18 वीं शताब्दी में यहां एक द्वीप था। 70 वर्ष पूर्व गुजरात के कुम्हारों ने बसाया था। उनकी संख्या लगभग 10000 थी।
(2) अस्थिति एवं विस्तार :- यह कच्ची बस्ती मुंबई शहर में जुहू से 12 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में उपनगरीय रेलमार्गों के बीच स्थित हैं।
(3) जनसंख्या :- वर्ष 2011 के अनुसार यहां की जनसंख्या 600000 है जो 100000 घरों में निवास करती हैं। कहीं-कहीं पर घर में 10-15 व्यक्ति तक एक ही कमरे में निवास करते हैं।
(4) परिवहन :- इस गंदी बस्ती से केवल एक मुख्य सड़क गुजरती है जो नाइन्टीफुट रोड के नाम से जानी जाती है। जिसकी चौड़ाई घटते-घटते आधे से भी कम रह गई है।