समकालीन भारतीय समाज

 समकालीन भारतीय समाज

समकालीन भारतीय समाज

भारतीय सामाज एक विविधतायुक्त समाज है। भारत में विभिन्न में लोगों , जातियों और समुदायों के बीच एक अनोखी समानता एवं एकता हमेशा विद्यमान रही है । भारतीय समाज एवं संस्कृति का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारतीय सामाजिक जीवन एक गतिशील समाज है । समाज में परिवर्तनशीलता के साथ-साथ निरंतरता भी देखने को मिलती है।
विवाह, परिवार और नातेदारी :–
भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता है। विवाह संबंधों के स्थायित्व में वर्तमान में कमी देखी जा रही है। विशेषकर यह शहरी क्षेत्रों में हो रहा है, इन परिवर्तनों के पीछे पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति का बढ़ता प्रभाव, बिखरते संयुक्त परिवार , नगरीयकरण, औद्योगिकरण आदि कारण माने जा सकते हैं।
वर्तमान में शहरी जीवन शैली की प्रधानता बढ़ रही है। एकल एवं छोटे परिवारों का जोर बढ़ता जा रहा है । रिश्तेदारी संबंध सीमित हो रहे हैं । परिवार के परंपरागत व्यवसाय के स्थान पर अब नए काम-धंधे अपनाए जा रहे हैं । जैसे — किसान का बेटा खेती से अलग कार्य करने लगा है ।
शिक्षा प्राप्त करके अनेक युवक नया व्यवसाय करने लगे हैं। बहुत से ग्रामीण युवा गांव से शहरों में और छोटे शहरों के अनेक युवा बड़े शहरों में जा रहे हैं । परंतु माता-पिता और सगे संबंधियों के प्रति सामाजिक कर्तव्य को आज भी निभाने का प्रयास किया जाता है। अतः इस प्रकार कार्यात्मक रूप से संयुक्त परिवार व्यवस्था प्रचलित है ।
सामाजिक प्रथाएं :–
समाज से सती प्रथा का उन्मूलन हो चुका है । कानूनी प्रतिबंध के बावजूद भी दहेज प्रथा , और बाल विवाह प्रथा आज भी समाज में विद्यमान है । विवाह समारोह में फिजूलखर्ची और दिखावा बढ़ता जा रहा है। अनेक परंपरावादी विश्वासों और विकार्यवादी प्रस्ताव को त्याग दिया गया है। बाजार और आधुनिकता के दबाव में सामाजिक प्रथाओं , त्यौहार और रिवाजों के तौर तरीके बदलते जा रहे हैं।
शिक्षा,बाजारीकरण एवं उपभोक्तावाद का प्रभाव :–
शिक्षा में देश के लोगों का दृष्टिकोण बढ़ाया है । अधिकारों एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विचार बढ़ा है। औद्योगिकरण और मध्यम वर्ग का उदय होने से समाज के मूल्य में परिवर्तन हुआ है। तर्कसंगत भावना का विकास हुआ है। व्यक्तिवादीता , समानता और न्याय की विचारधारा का महत्व बढ़ा है। महिलाएं शिक्षा और रोजगार प्राप्त करके स्वतंत्रता अर्जित कर रही है।
बाजारीकरण का विस्तार हो रहा है। विवाह जैसे पारिवारिक व सामाजिक कार्य भी व्यावसायिक “विवाह ब्यूरो” द्वारा फीस लेकर तय एवं संपन्न करने में भूमिका निभाने लगे हैं। ‘व्यक्तित्व सँवारने’ के पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं । अब गांव में पानी की बोतल बिक्री के लिए उपलब्ध होना कोई आश्चर्य बात नहीं रह गई है।
समाज में बाजारवाद के दबाव में उपभोक्तावाद बढ़ता जा रहा है। अधिक से अधिक वस्तुओं को खरीदना, उनका उपभोग व प्रदर्शन करना यह लोगों की जीवनशैली बन चुकी है। संस्कृति भी बाजार का हिस्सा बन चुकी है। भारतीय संस्कृति के गौरव – योग, आयुर्वेद और पुष्कर जैसे मेलों पर बाजारीकरण के प्रभाव परिलक्षित होना इसके उदाहरण है।
जाति प्रथा :- जाति के धार्मिक आधार समाप्त हो रहे हैं । और सामाजिक संस्था के रूप में जाति मजबूत हो रही है। राजनीतिक रूप से जातिवाद में बढ़ोतरी हुई है । जातीय संगठन मजबूत हुए हैं। जाति चुनावी राजनीति का आधार बन गई है।
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित चुनावी लोकतंत्र ने उन जातियों को राजनीतिक शक्ति प्रदान कर दी है, जिनकी जनसंख्या काफी बड़ी है।
यह जातियां राजनीति और खेतिहर व्यवस्था में निर्णायक भूमिका अदा कर रही है। देश की विकासात्मक नीतियों से लाभान्वित शहरी उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के लिए जातीयता का महत्व कम हो गया है।
शिक्षित वर्ग ने अतिवादी जातीय व्यवहारों को छोड़ना प्रारंभ कर दिया है । वह व्यक्तिवाद और योग्यता को अधिक महत्व देते हैं। अंतरजातीय विवाह बढ़ते जा रहे हैं । अमीरी और गरीबी का संबंध सामान्यतः जाति से नहीं रह गया है ।आज हर जाति में अमीर है, तो गरीब भी है
आरक्षण की मांग बढ़ती जा रही है, और इसने राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया, ऐसा लग रहा है। एक शक्तिशाली और शिक्षित मध्यमवर्ग का उद्भव हो चुका है।
बढ़ता शहरीकरण एवं शहरी जीवन शैली :–
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत की कुल जनसंख्या का 11% आबादी शहरों में रहती थी। किंतु 21वीं सदी (जनगणना 2011) में भारत की 31.16 % जनसंख्या शहरों में रहने लग गई।
इसका मुख्य कारण ग्रामीण जीवन शैली का आर्थिक और सामाजिक महत्व घटता जा रहा है, और उद्योग आधारित नगरीय जीवन शैली का प्रभाव समाज में बढ़ता जा रहा है । रेडियो, टेलीविजन, समाचार – पत्र जैसे जनसंपर्क एवं जन संचार के साधनों के जरिए ग्रामीण लोग नगरीय सुख-सुविधाओं से सुपरिचित हो जाते हैं। भारतीय समाज का स्वरूप अब ग्रामीण की बजाय नगरीय होता जा रहा है।
साक्षरता संबंधी विषमता :–
साक्षरता शक्ति संपन्न होने का महत्वपूर्ण साधन है । साक्षरता से स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आती है, और समुदाय के सदस्यों की सांस्कृतिक और आर्थिक कल्याण के कार्य में सहभागिता बढ़ती है। देश में जहां पुरुष साक्षरता दर 82.14% है , वहीं महिला साक्षरता 65 .46% ही है । जबकि राजस्थान में 79.02% पुरुष साक्षरता है, वही मात्र 52.10% महिलाएं ही साक्षर है, यानी आधी महिलाएं निरक्षर है।
अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़ा वर्ग की महिला साक्षरता में अधिक पिछड़ी हुई है।
गिरता हुआ लिंगानुपात :–
भारत वर्तमान में विश्व भर में सबसे युवा देशों में से एक है । भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 60. 29 प्रतिशत भाग कार्यशील जनसंख्या का है।( 15 से 59 वर्ष तक)
भारत के पास काफी बड़ा और बढ़ता हुआ श्रमिक बल है । जो समृद्धि की दृष्टि से लाभ प्रदान करता है। किंतु भारत में लिंगानुपात में भारी विषमता है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में प्रति 1000 पुरुषों की आबादी पर 943 महिलाएं हैं, वहीं राजस्थान में मात्र 928 महिलाएं ही है ।
बालिकाओं के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार को प्रदर्शित करती है । इस स्थिति के लिए उत्तरदाई कारण भ्रूण के लिंग परीक्षण पर नियंत्रण पर रोक लगाने के लिए कानून बनाकर इसे दंडात्मक अपराध घोषित कर दिया गया है । “बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ” योजना चलाई जा रही है।
विकार्यवादी से तात्पर्य — प्रकार्यात्मक / व्याधिकिय/ नुकसानदायक होता है।
बाजारीकरण से अभिप्राय — किसी वस्तु का एक उत्पाद के रूप में रूपांतरण करना, ऐसी सेवा या क्रियाकलाप जिसका आर्थिक मूल्य हो और जिसका बाजार में व्यापार हो सकता हो।

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