कक्षा 9 विज्ञान अध्याय 12: खाद्य संसाधनों में सुधार

कक्षा 9 विज्ञान अध्याय 12: खाद्य संसाधनों में सुधार

परिचय:

  • सभी जीवों को भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन से हमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिज मिलते हैं, जो हमारे शरीर के विकास, वृद्धि और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
  • भारत की बढ़ती जनसंख्या के लिए, हमें अधिक खाद्य उत्पादन की आवश्यकता होगी। भूमि सीमित है, इसलिए कृषि और पशुधन के उत्पादन में सुधार आवश्यक है।

1. फसल सुधार की रणनीतियाँ:

फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए तीन प्रमुख रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं: फसल की किस्म में सुधार, फसल उत्पादन में सुधार, और फसल सुरक्षा प्रबंधन।

1.1 फसल की किस्म में सुधार:

  • इस प्रक्रिया में उच्च उत्पादकता, बेहतर गुणवत्ता, और रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली फसल किस्मों का चयन किया जाता है।
  • किस्म सुधार के तरीके:
  1. हाइब्रिडाइजेशन: विभिन्न पौधों की किस्मों को पार करके नई किस्में विकसित की जाती हैं।
    • हाइब्रिडाइजेशन के प्रकार:
    • अंतरवर्गीय: एक ही प्रजाति के विभिन्न किस्मों के बीच।
    • अंतरप्रजातीय: एक ही वंश की विभिन्न प्रजातियों के बीच।
    • अंतरजननिक: विभिन्न वंशों के बीच।
  2. आनुवांशिक सुधार: वांछित गुणों वाले जीन को फसल में शामिल करके आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलें तैयार की जाती हैं।
  • किस्म सुधार के प्रमुख उद्देश्य:
  1. उच्च उत्पादकता: प्रति हेक्टेयर फसल की उत्पादकता बढ़ाना।
  2. बेहतर गुणवत्ता: विभिन्न फसलों के लिए विभिन्न गुण आवश्यक होते हैं, जैसे गेहूं में बेकिंग गुणवत्ता, दालों में प्रोटीन गुणवत्ता।
  3. जैविक और अजैविक प्रतिरोधक क्षमता: फसलें कीट, रोग, और सूखा, लवणीयता जैसी चुनौतियों का सामना कर सकें।
  4. कम अवधि में परिपक्वता: कम समय में फसल तैयार होने से अधिक फसल चक्र संभव होता है और उत्पादन लागत कम होती है।
  5. व्यापक अनुकूलता: विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में भी अच्छी पैदावार देने वाली किस्में विकसित की जाती हैं।
  6. वांछनीय कृषि गुण: चारे की फसलों के लिए ऊंचाई और शाखाओं की संख्या में वृद्धि, और अनाज की फसलों के लिए पौधों का छोटा आकार ताकि पोषक तत्वों का कम उपयोग हो।

1.2 फसल उत्पादन में सुधार:

फसल उत्पादन में सुधार के लिए उन्नत कृषि तकनीकों का उपयोग किया जाता है। उत्पादन की विधियाँ किसान की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती हैं:

  • बिना लागत वाली खेती: प्राकृतिक संसाधनों और पारंपरिक तरीकों का उपयोग।
  • कम लागत वाली खेती: जैविक खाद का सीमित उपयोग।
  • उच्च लागत वाली खेती: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, और प्रौद्योगिकी का उपयोग।
1.2.1 पोषण प्रबंधन:
  • पौधों की वृद्धि के लिए पोषक तत्व आवश्यक होते हैं, जो हवा (कार्बन, ऑक्सीजन), पानी (हाइड्रोजन), और मिट्टी (मैक्रो और माइक्रो पोषक तत्व) से प्राप्त होते हैं।
  • मैक्रो पोषक तत्व: बड़े मात्रा में आवश्यक (जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम)।
  • माइक्रो पोषक तत्व: छोटे मात्रा में आवश्यक (जैसे आयरन, जिंक)।
  • पोषण आपूर्ति के दो प्रमुख स्रोत:
  1. खाद: जैविक कचरे से प्राप्त पोषक तत्व।
    • कम्पोस्ट: जैविक कचरे का अपघटन।
    • वर्मी-कम्पोस्ट: केंचुओं की मदद से अपघटित किया गया खाद।
    • हरी खाद: फसल बोने से पहले कुछ पौधों को मिट्टी में मिलाकर पोषक तत्वों से समृद्ध किया जाता है।
  2. उर्वरक: रासायनिक रूप से तैयार किए गए पोषक तत्व जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक होते हैं।
1.2.2 सिंचाई:
  • खेती में सही समय पर सिंचाई से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
  • सिंचाई के तरीके:
  • कुओं: भूमिगत जल से सिंचाई।
  • नहरों: नदियों और जलाशयों से पानी लाने की प्रणाली।
  • टैंकों: वर्षा जल संग्रहण।
  • वर्षा जल संचयन: वर्षा जल को संग्रहीत करके सिंचाई के लिए उपयोग करना।
1.2.3 खेती के पैटर्न:
  • फसल उत्पादन में वृद्धि के लिए विभिन्न खेती पैटर्न अपनाए जाते हैं:
  1. मिश्रित खेती: एक ही खेत में दो या अधिक फसलों को एक साथ उगाना।
    • उदाहरण: गेहूं + चना, मूंगफली + सूरजमुखी।
  2. इंटरक्रॉपिंग: एक ही खेत में व्यवस्थित तरीके से विभिन्न फसलों को उगाना।
    • उदाहरण: सोयाबीन + मक्का, बाजरा + लोबिया।
  3. फसल चक्रण: एक ही खेत में समय-समय पर विभिन्न फसलों को उगाना।
    • उदाहरण: धान के बाद गेहूं।

1.3 फसल सुरक्षा प्रबंधन:

  • फसलों को खरपतवार, कीट, और रोगों से बचाना आवश्यक है।
  • खरपतवार: अनावश्यक पौधे जो फसल के पोषक तत्वों का उपभोग करते हैं। उदाहरण: गाजर घास।
  • कीट: पौधों को क्षति पहुँचाने वाले कीट जो पत्तियों, तनों, और फलों को खाते हैं।
रक्षा के तरीके:
  • रासायनिक नियंत्रण: खरपतवारनाशी, कीटनाशक, और फफूंदनाशक का उपयोग।
  • जैविक नियंत्रण: प्राकृतिक शत्रुओं का उपयोग।
  • रोकथाम: सही समय पर बुवाई, फसल चक्रण, और इंटरक्रॉपिंग।

2. पशुधन पालन:

पशुधन पालन में पशुओं की देखभाल, प्रजनन, और रोग नियंत्रण का वैज्ञानिक प्रबंधन किया जाता है।

2.1 पशुपालन:

  • उद्देश्य:
  • दूध उत्पादन (दुग्ध पशु)।
  • कृषि कार्यों में सहायक (मसक पशु)।
  • प्रजातियाँ: भारतीय नस्लें (जैसे साहिवाल, लाल सिंधी) रोग प्रतिरोधक होती हैं, जबकि विदेशी नस्लें (जैसे जर्सी, ब्राउन स्विस) अधिक दूध देती हैं।

2.2 पोल्ट्री फार्मिंग:

  • उद्देश्य:
  • अंडा उत्पादन (लेयर्स)।
  • मांस उत्पादन (ब्रोइलर्स)।
  • प्रबंधन: पोषक तत्वों से भरपूर आहार, साफ-सुथरी आवासीय व्यवस्था, और सही समय पर टीकाकरण आवश्यक है।

2.3 मत्स्य पालन:

  • कैप्चर फिशिंग: नदियों, समुद्रों, और तालाबों से मछली प्राप्त करना।
  • क्लचर फिशिंग: नियंत्रित पर्यावरण में मछली का पालन करना।
  • समग्र मत्स्य पालन: एक तालाब में विभिन्न प्रकार की मछलियों को पालना ताकि संसाधनों का पूरा उपयोग हो सके।

2.4 मधुमक्खी पालन:

  • मधुमक्खी पालन से शहद और मोम का उत्पादन किया जाता है।
  • मधुमक्खी की प्रजातियाँ: भारतीय मधुमक्खी (Apis cerana) और इटालियन मधुमक्खी (Apis mellifera)।

मुख्य बिंदु:

  • सतत कृषि और पशुधन प्रबंधन के द्वारा खाद्य उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।
  • मिश्रित खेती, जैविक खेती, और फसल चक्रण जैसी तकनीकों का उपयोग करना पर्यावरण के लिए अनुकूल है।
  • पशुपालन और मत्स्य पालन के साथ कृषि को मिलाकर किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है।
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