प्राथमिक व्यवसाय
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आखेट :- मानव के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार अस्त्र, शस्त्र तथा विधियों के द्वारा पशु-पक्षियों को मारना तथा पकड़ना ‘शिकार’ कहलाता है।
आखेट की विशेषताएं :-
(1) यह उद्यम विश्व का सबसे प्राचीन उद्यम माना जाता है।
(2) इसमें सबसे कम व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।
(3) अन्य किसी आर्थिक क्रिया की अपेक्षा अधिक क्षेत्र की आवश्यकता होती है।
(4) इस व्यवसाय में जीवनयापन न्यूनतम आधार पर संभव है।
(5) आखेट की प्रक्रिया अपनाते हुए व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भोजन, वस्त्र एवं निवास के लिए साधन जुटाते हैं।
(6) अतिशीत व अधिक गर्म प्रदेशों में रहने वाले लोग आखेट द्वारा जीवनयापन करते हैं।
(7) यह कार्य कठोर जलवायु दशाओं में घुमक्कड़ जीवन जीते हुए किया जाता है।
(8) इस कार्य के लिए बहुत कम पूंजी एवं निम्न स्तरीय तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है।
(9) इसमें भोजन अधिशेष नहीं रहता है।
(10) आखेटक लोग आखेट के लिए नुकीले औजार, विषाक्त बाणों एवं फंदे आदि काम में लेते हैं।
आखेट क्षेत्र निम्नलिखित हैं :-
(1) कनाडा के टुण्ड्रा और टैगा प्रदेशों में एस्किमो जनजाति द्वारा।
(2) उत्तरी साइबेरिया में बसने वाले सेमोयड, तुंग, चकची, कोरियाक आदि जनजातियों द्वारा।
(3) कालाहारी मरुस्थल में बुशमैन जनजाति द्वारा।
(4) कांगो बेसिन में पिग्मी जनजाति द्वारा।
(5) मलाया (मलेशिया) में सेमांग व सकाई जनजाति द्वारा।
(6) बोर्निया (दक्षिण एशिया) में पुनान जनजाति द्वारा।
(7) न्यूगिनी में पापुऑन जनजाति द्वारा।
(8) अमेजन बेसिन में जिवारो व यागुआ जनजाति द्वारा।
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प्राथमिक व्यवसाय
एकत्रीकरण करना :- मानव के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों से फल, फूल, पत्ते, लकड़ी तथा औषधियों को इकट्ठा करने को संग्रहण कहते हैं।
संग्रहण की विशेषता निम्न है :-
(1) खाद्य संग्रहण भी मनुष्य का सबसे प्राचीनतम व आर्थिक दृष्टि से निम्न क्रम का व्यवसाय है।
(2) सामाजिक व औद्योगिक विकास के साथ इस व्यवसाय का महत्व कम होता जा रहा है।
(3) मानव अपनी रोटी, कपड़ा और मकान तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का संग्रह करता आया है।
(4) इस व्यवसाय में संलग्न लोग जंगलों से फल, कंदमूल, बेरी आदि का संग्रह करते हैं।
(5) यह लोग कृषि नहीं करते तथा पशुओं को भी पालतू नहीं बनाते।
(6) ये पर्यावरण से छेड़छाड़ नहीं करते और न्यूनतम परिश्रम से प्राप्त होने वाली वस्तुओं का सेवन करते हैं।
संग्रहण व्यवसाय के मुख्य क्षेत्र :-
(1) मलाया प्रायद्वीप में सेमांग व सकाई जनजाति।
(2) अमेजन बेसिन में बोरो जनजाति।
(3) कालाहारी क्षेत्र में बुशमैन जनजाति।
(4) पर्वतीय क्षेत्रों में।
(5) दक्षिणी पूर्वी एशिया के आंतरिक भागों में।
विशेषता :-
(1) यह लोग कीमती पौधों की पत्तियां, घास एवं औषधीय पौधों को सामान्य रूप से संशोधित कर बाजार में बेचने का कार्य भी करते हैं।
(2) विभिन्न वृक्षों के छालों का उपयोग कुनैन बनाने, चमड़ा तैयार करने व कार्क तैयार करने के लिए किया जाता है।
(3) पत्तियों का उपयोग पेय पदार्थ, दवाइयां एवं कांतिवर्धक वस्तुएं बनाने के लिए करते हैं।
(4) रेशे को कपड़ों बनाने तथा दृढ़ फल को भोजन एवं तेल बनाने के लिए किया जाता है।
(5) तने का उपयोग रबड़, बलाटा, गोंद व रोल बनाने में होता है।
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(3) मछली पकड़ना :-
विशेषताएं निम्नलिखित है :-
(1) यह व्यवसाय भी प्राचीन काल से ही होता आ रहा है।
(2) मछलियां तालाबों, पोखरों, नदियों, नालों, झीलों तथा तटवर्ती सागरों से पकड़ी जाती है।
(3) इस व्यवसाय में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध मछलियों को पकड़ते हैं तथा अपना जीवन निर्वाह करते हैं।
(4) मछलियों को भोजन के अलावा तेल व चमड़ा प्राप्त करने, दुधारू पशुओं को खिलाने व खाद बनाने आदि विभिन्न कामों में भी लिया जाता है।
(5) तकनीकी विकास एवं बढ़ती जनसंख्या की उदरपूर्ति की मांग के कारण मत्स्य व्यवसाय में आधुनिकीकरण हुआ है।
(6) मछलियां ताजे पानी के स्त्रोत नदियों, झीलों, तालाब तथा खुले व तटवर्ती समुद्रों में पकड़ी जाती है।
(7) समुद्रों में शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में ठंडी और गर्म धाराओं के मिलन स्थलों पर अधिक पकड़ी जाती है, क्योंकि वहां पर मछलियों का मुख्य भोजन प्लेकटन अधिक पाया जाता है।
पकड़ने वाले क्षेत्र निम्नलिखित हैं :-
(1) उत्तरी प्रशांत महासागर तटवर्तीय क्षेत्र
(2) उत्तरी अटलांटिक तटीय अमेरिकन क्षेत्र
(3) उत्तरी पश्चिमी यूरोपीय क्षेत्र
(4)जापान सागर क्षेत्र
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(4) पशुपालन/पशुचारण :-
(1) आखेट संग्रहण पर निर्भर रहने वाले मानव समूह ने जब यह महसूस किया कि इनसे ढंग से जीवनयापन नहीं हो सकता है, तब मानव ने पशुपालन व्यवसाय को अपनाया।
(2) विभिन्न प्राकृतिक दशाओं में रहने वाले लोगों ने उन क्षेत्रों में पाए जाने वाले पशुओं का पालन करके पालतू बनाया।
(3) पशुओं से भोज्य पदार्थ दूध, चमड़ा एवं ऊन प्राप्त करते हैं।
(4) यह व्यवसाय मुख्यतः उन क्षेत्रों में किया जाता है जहां जलवायु उष्ण व शुष्क अथवा शीतोष्ण व शुष्क होती है नया धरातल उबड-खाबड़ व पर्वतीय होता है।
क्षेत्र निम्नलिखित हैं :-
(1) उष्णकटिबंधीय घास के मैदान :- ये 5° से 30° अक्षांशों के बीच मे फैले हैं, जहाँ वर्षा का औसत 100 सेंटीमीटर से कम है। घास की ऊंचाई 1.8 से 3.0 मीटर के बीच होती हैं। इन घास के मैदानों को सूडान में, वेनेजुएला में लानोस (दक्षिण अफ्रीका), ब्राजील में कंपाज तथा दक्षिणी अफ्रीका में पार्कलैंड के नाम से जाना जाता है।
(2) शीतोष्ण कटिबंधीय घास के मैदान :- ये 30° से 45° अक्षांशो के बीच फैले हैं। यहां वर्षा का औसत 50 सेंटीमीटर है। इन घास के मैदानों को रूस में स्टेपीज, संयुक्त राज्य अमेरिका मे पम्पाज (प्रेयरी), ऑस्ट्रेलिया में डाउन्स के नाम से जाना जाता है।
(अ) घुमक्कड़ पशुचारण :-
(1) चलवासी पशुचारण मुख्यतः जीवन निर्वाह क्रिया है।
(2) यह पशुपालन का साधारण रूप जिसमें पशु मुख्यतः प्राकृतिक वनस्पति पर ही आश्रित होते हैं।
(3) चलवासी पशुचारण में भूमि का विस्तृत उपयोग किया जाता है।
(4) इनकी संपत्ति इनके पशु होते हैं।
(5) अधिकांश चलवासी चरवाहे कबीले में रहते हैं।
(6) पशुचारण की विधि प्राचीन ढंग की होती है।
(7) ये लोग चारे की प्राप्ति के लिए ऋतुओं के अनुसार पशुचारण करते हैं।
(8) दक्षिण पश्चिम एशिया तथा अफ्रीका के सहारा मरुस्थल में ऊँट, अरब प्रायद्वीप, इराक, ईरान, अफगानिस्तान आदि देशों में भेड़, बकरी, गाय, घोड़े गधे व खच्चर मध्य एशिया के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में याक् व टुण्ड्रा प्रदेशों में रेनडियर व कैरिब पाले जाते हैं।
(9) भारत में हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में गुज्जर, बकरवाल, गद्दी व भूटिया लोगों का समूह ग्रीष्मकाल में मैदानी क्षेत्रों से पर्वतीय क्षेत्रों में चले जाते हैं तथा शीतकाल में पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों में आ जाते हैं।
(10) चलवासी पशुचारकों की संख्या व क्षेत्र निरंतर घट रही है। इसके दो कारण हैं – (1) राजनीतिक सीमाओं का अधिरोपण (2) कई देशों द्वारा नई बस्तियों की योजना बनाना।
(11) पिछली एक सदी के दौरान उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया में चलवासी पशुचारण का स्थान व्यापारिक पशुचारण ने ले लिया है।
(ब) वाणिज्यिक पशुचारण :-
(1) यह अधिक व्यवस्थित तथा पूंजी प्रधान व्यवसाय हैं।
(2) पशुओं के लिए बड़े-बड़े फार्म बनाए जाते हैं, जिन्हें ‘रेंज’ कहते हैं।
(3) पशु उत्पादों को वैज्ञानिक ढंग से संशोधित एवं डिब्बा बंद कर विश्व बाजार में निर्यात कर दिया जाता है।
(4) इन उत्पादों को सड़ने से बचाने के लिए रेफ्रिजरेटर का प्रयोग किया जाता है।
(5) इसमें मुख्य ध्यान पशुओं के प्रजनन, जननिक सुधार, बीमारियों पर नियंत्रण एवं उनके स्वास्थ्य पर रहता है।
(6) व्यापारिक पशुपालन मुख्यतः शीतोष्ण घास के मैदानों में किया जाता है।
(7) डेनमार्क एवं न्यूजीलैंड दूध के लिए, ऑस्ट्रेलिया दूध और ऊन के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका मांस व दूध उत्पादन के लिए विशेष पहचान रखते हैं।
(8) विश्व में न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटाइना, युरग्वे, संयुक्त राज्य अमेरिका, डेनमार्क, स्वीडन तथा हालैण्ड में वाणिज्यिक पशुपालन किया जाता है।
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कृषि :-
संसार में विभिन्न कृषि प्रणालियां देखी जाती हैं कृषि की मुख्य प्रणालियां निम्नलिखित हैं :-
(1) स्थानांतरित कृषि :- यह कृषि का सबसे प्राचीन रूप है। यह कृषि उष्णकटिबंधीय वनों में की जाती है। यहां वनों को जला दिया जाता है। भूमि को साफ किया जाता है और उस भूमि पर कृषि की जाती हैं। यह कैसी आदिम जनजाति के लोगों द्वारा की जाती है। इस प्रकार की कृषि की विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
(1) इसमें बोयें गये खेतों का आकार बहुत ही छोटा होता है।
(2) कृषि पुराने औजारों जैसे लकड़ी, कुदाली, फावड़े आदि से की जाती है।
(3) दो-तीन वर्षों में भूमि में उर्वरता समाप्त होने पर अन्यत्र नए सिरे से खेत तैयार कर खेती की जाती है।
(4) इस प्रकार की कृषि को भारत के पूर्वी राज्यों में झूमिंग, मध्य अमेरिका एवं मैक्सिको में मिलपा, मलेशिया व इंडोनेशिया में लदांग तथा वियतनाम में ‘रे’ कहा जाता है।
(5) यह कृषि अमेज़न नदी बेसिन, कांगो बेसिन व पूर्वी द्वीप समूह में भी की जाती है।
(6) वर्तमान में इसमें धान, स्थानीय मोटे अनाज मक्का, ज्वार, बाजरा, दालें, तिलहन आदि फसलें पैदा की जाती है।
(2) आदिम स्थायी कृषि :- धीरे-धीरे स्थानांतरणशील कृषि ने स्थायी रूप ग्रहण कर लिया तो ऐसी कृषि आदिम स्थायी कृषि कहलायी। इस कृषि की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
(1) भूमि को साफ करके मिट्टी की जुताई ढंग से की जाती है।
(2) उपलब्ध जल का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता है।
(3) उत्पादन में वृद्धि होने के कारण अन्य व्यवसाय भी पनप जाते हैं।
(4) कृषि के साथ पशुपालन भी किया जाता है।
(5) पशुओं का प्रयोग खेतों की जुताई एवं परिवहन में किया जाता है।
(6) इस कृषि का विस्तार उत्तरी पूर्वी भारत, मलेशिया, इंडोनेशिया, मध्य इंडीज के देशों में मिलता है।
(3) जीवन-निर्वाह कृषि :- कृषि की शुरुआत जीवनयापन के रूप में हुई थी। लेकिन यह कृषक के लिए रोजगार का प्रमुख साधन बन गई। उसकी भोजन की आवश्यकताओं के साथ-साथ अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगी तो कृषि का यह प्रकार जीवन-निर्वाहन कृषि कहलाने लगा।
विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
(1) यह कृषि का स्थायी रूप है तथा अनुकूल प्राकृतिक दशाओं वाले क्षेत्रों में की जाती है।
(2) कृषि भूमि पर जनसंख्या के दबाव के कारण भूमि का गहनतम उपयोग होता है।
(3) कृषि की गहनता इतनी है कि वर्ष में दो या तीन फसलें ली जाती हैं।
(4) भू-जोत छोटे आकार के व छितरे हुए होते हैं।
(5) मानवीय श्रम के भरपूर उपयोग के साथ-साथ कृषि यंत्रों का प्रयोग भी किया जाता है।
(6) उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के प्रयोग द्वारा उत्पादकता बढ़ी है।
(7) सिंचाई सुविधाओं का विस्तार हुआ है तथा फसल चक्र का अनुसरण किया जाता है।
(8)सघन जनसंख्या के कारण मुख्यतः खाद्यान्नों का उत्पादन होता है।
(9) इस प्रकार की कृषि मानसून एशिया के घने क्षेत्रों में की जाती है।
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जीवन निर्वाहन कृषि के प्रकार हैं :-
(1) चावल प्रधान निर्वहन कृषि :- इसका विस्तार भारत, बांग्लादेश, म्यानमार, इंडोनेशिया, कंबोडिया, थाईलैंड, दक्षिण-मध्य चीन में मिलता है। इन क्षेत्रों में 100 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा होती है। इन क्षेत्रों में चावल मुख्य खाद्यान्न फसल है।
(2) गेहूं प्रधान निर्वाहन कृषि :-
उसका विस्तार उत्तरी मध्य और पश्चिमी भारत, उत्तरी चीन, पाकिस्तान व कोरिया में मिलता है। इन क्षेत्रों में वर्षा 100 सेंटीमीटर से कम होती हैं। इन क्षेत्रों में गेहूं प्रमुख खाद्यान्न फसल है।
(4) विस्तृत वाणिज्यिक अनाज कृषि :-
इसकी विशेषताओं को इस प्रकार समझा जा सकता है –
(1) इस प्रकार की कृषि विस्तृत भू जूतों पर की जाती है। इनका क्षेत्रफल प्राय 240 से 1600 हेक्टेयर तक होता है।
(2) खेत तैयार करने से फसल काटने तक का समस्त कार्य मशीनों द्वारा किया जाता है। ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, र्थेसर, कम्बाईन, विनोअर आदि मुख्य यंत्र हैं।
(3) इस प्रकार की कृषि की मुख्य फसल गेहूं है। जौ, जई, राई, तिलहन आदि फसलें भी बोई जाती है।
(4) खाद्यान्नों को सुरक्षित रखने के लिए बड़े-बड़े माल गोदाम बनाए जाते हैं।
(5) मानवीय श्रम का उपयोग न्यूनतम होता है।
(6) प्रति हेक्टेयर उपज कम तथा प्रति व्यक्ति उपज अधिक होती है।
(7) शीतोष्ण कटिबंधीय घास के मैदानों में इस प्रकार की कृषि की जाती है। यूरेशिया, उत्तरी अमेरिका के प्रेयरीज, अर्जेंटाइना के पम्पाज, दक्षिण अफ्रीका के वेल्डस, ऑस्ट्रेलिया के डाउन्स तथा न्यूजीलैंड कैटरबरी के मैदानों में इस प्रकार की कृषि की जाती है।
(8) इन क्षेत्रों में निरंतर जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि क्षेत्र निरंतर घटता जा रहा है।
(9) इस प्रकार की कृषि करने वाले सभी देश विकसित है।
(10) यह कृषि यंत्रीकृत एवं उच्च तकनीक आधारित है।
(5) बागानी कृषि :-
इस प्रकार की वाणिज्यिक कृषि का विकास उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उपनिवेश काल में यूरोपीय लोगों के द्वारा किया गया था।
(2) ब्रिटेनवासियों ने भारत व श्रीलंका मे चाय के बागान, मलेशिया में रबड़ के बागान एवं पश्चिमी द्वीप समूह में गन्ना तथा केलों के बागान विकसित किए।
(3) फ्रांसवासियों ने पश्चिमी अफ्रीका में कॉफी एवं कोकोआ का रोपण किया। अमेरिकावासियों ने फिलीपाइन्स में नारियल व गत्रे के बागान लगाये।
(4) ब्राजील में कई यूरोपीय देशों ने कहवा के बागान लगाये। यह बागान ‘फेजेंडा’ के नाम से जाने जाते हैं।
विशेषताएं निम्न प्रकार हैं :-
(1) इसमें भारी पूंजी निवेश, उच्च तकनीकी आधार एवं वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है।
(2) इसमें बहुत बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती हैं।
(3) यह एक फसली कृषि हैं।
(4) इनसे उद्योगों को कच्चा माल मिलता है।
(5) इलायची, काली मिर्च, गन्ना, रबर, कहवा, नारियल, केला प्रमुख बागानी फसलें हैं।
(6) इस प्रकार की कृषि इंडोनेशिया, मलेशिया, दक्षिणी पूर्वी भारत, दक्षिणी चीन, कंबोडिया, फिलीपाइन्स, श्रीलंका, मध्य अफ्रीका, ब्राजील, फिजी, क्यूबा व हवाई द्वीपों पर की जाती है।
(6) मिश्रित कृषि :-
इस कृषि में फसलें उगाने तथा पशुओं को पालने का कार्य एक साथ किया जाता है। इसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
(1) फसल उत्पादन एवं पशुपालन दोनों को इसमें समान महत्व दिया जाता है।
(2) इस कृषि में खेतों का आकार मध्यम होता है।
(3) गेहूं, जौ, राई, जई, मक्का, सोयाबीन व चारे की फसल आदि प्रमुखता से बोई जाने वाली फसलें हैं।
(4) फसलों के साथ पशुओं जैसे भेड़, बकरी, सूअर, मवेशी, मुर्गी आदि को पाला जाता है।
(5) इस प्रकार की कृषि में भारी पूंजी निवेश होता है।
(6) कुशल एवं योग्य कृषक इस प्रकार की खेती को करते हैं।
(7) यह कृषि महानगरों के समीप की जाती हैं।
(8) उत्तम कृषि विधियों, उत्तम परिवहन व विश्वसनीय वर्षा से इस कृषि को बड़ी सहायता मिलती हैं।
(7) दुग्ध कृषि :-
यह कृषि का विशिष्ट तरीका है। इसमें दूध देने वाले पशुओं के प्रजनन, पशुचारण और नस्ल सुधारने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसमें पशुओं की देखभाल वैज्ञानिक तरीके से की जाती है। दूध दोहने और उसको परिष्कृत करने की क्रियाओं को मशीनों द्वारा किया जाता है। डेयरी कृषि का कार्य नगरीय व औद्योगिक केंद्रों के समीप किया जाता है क्योंकि ये क्षेत्र दूध एवं अन्य डेयरी उत्पादों के अच्छे बाजार होते हैं। न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका में डेयरी फार्मिंग ने एक उद्योग का रूप ले लिया है।
(8) ट्रक कृषि :-
यह भी विशिष्ट प्रकार की कृषि है, जिसमें साग सब्जियों की कृषि की जाती है। इन वस्तुओं को प्रतिदिन ट्रकों में भरकर निकटवर्ती नगरीय बाजारों में ले जाकर बेचा जाता है। इसलिए इस कृषि का नाम ट्रक कृषि रखा है। सर्वप्रथम इस प्रकार की कृषि का शुभारंभ संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ।
भारत में नगरीकरण तेजी से बढ़ा है। अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है। इसलिए देश में बढ़ती सब्जियों की मांग के कारण इस प्रकार की कृषि का तेजी से विकास हो रहा है।
(9) फलोद्यान कृषि :-
यह भी कृषि का एक विशिष्ट प्रकार है, जिसमें ट्रक फार्मिंग की तरह साग-सब्जियों की जगह फल व फूलों की कृषि की जाती है। फलों व फूलों की मांग नगरों में अधिक होती है। विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के फल उगाए जाते हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में केला, आम, नारियल तथा शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में सेव, नाशपती तथा भूमध्यसागरीय शहरों में नींबू, नारंगी, संतरा, अंगूर आदि मुख्य हैं।
भारत में गुलाब, गेंदे व अन्य फूलों की अच्छी पैदावार होती है।
प्राथमिक व्यवसाय
लकड़ी काटना :-
यह भी मानव का एक प्रमुख प्राथमिक व्यवसाय है। इसमें वनों से लकड़ी काटना, उसके लट्ठे बनाना तथा उन्हें आरा मशीनों तक भेजना शामिल है। इस व्यवसाय में भी अन्य व्यवसायों की भांति महत्वपूर्ण बदलाव आया है। पहले लकड़ी को केवल इंधन के लिए काटा जाता था लेकिन आज इसका प्रयोग कई उद्योगों में कच्चे माल के रूप में किया जाता है। कागज व फर्नीचर उद्योग इस पर आधारित उद्योग है।
उष्णकटिबंधीय वनों के प्रमुख वृक्ष साल, सागवान, महोगनी, चंदन, रोजवुड आदि है। इनका उपयोग इमारती व फर्नीचर बनाने में किया जाता है।
शीतोष्ण कटिबंधीय कोणधारी वनों में लकड़ी काटने का कार्य व्यापारिक रूप से किया जाता है। इनकी मुलायम लकड़ी लुगदी, कागज, पैकिंग का समान बनाने में काम आती है। व्यापारिक स्तर पर लकड़ी काटने का कार्य कनाडा, नार्वे, फिनलैंड एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में किया जाता है।
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प्राथमिक व्यवसाय
खनन :-
जिस स्थानों में खनिज पाए जाते हैं वहीं पर खनन व्यवसाय विकसित हो पाता है। खनन कार्य का अर्थ खनिजों को भूगर्भ से बाहर निकालना होता है।
जिन साधनों से खनिज निकाले जाते हैं, उन्हें खान कहते हैं। मानव विकास के इतिहास में खनिजों की खोज की कई अवस्थाएं देखी जा सकती है जैसे पाषाण युग, ताम्र युग, काँस्य युग एवं लौह युग। आजकल हम इस्पात युग में रह रहे हैं। इनका वास्तविक विकास तो औद्योगिक क्रांति के पश्चात ही संभव हुआ क्योंकि लोहा उद्योग व व्यापार जगत की धुरी है। उनमें लोह धातु सबसे उपयोगी है। कोयला व पेट्रोलियम शक्ति का आधार स्तंभ है।
प्राथमिक व्यवसाय
खनन कार्य को प्रभावित करने वाले कारक :-
खनिजों की उपस्थिति मात्र से उनका खनन संभव नहीं होता अपितु भौतिक एवं मानवीय दशायें भी खनिज उत्खनन को प्रभावित करती हैं।
(1) प्राकृतिक दशाएं :- प्राकृतिक दशाओं के अंतर्गत खनिज भंडारों की स्थिति, खनिज की कोटि, मात्रा, प्रकार, सम्पन्नता एवं बाजार क्षेत्र की समीपता आदि प्रमुख है।
(2) मानवीय दशाएं :- मानवीय दशाओं के अंतर्गत खनिज की मांग, यातायात की सुविधा, पूंजी, श्रम, तकनीकी विकास का स्तर, सरकारी नीतियां आदि प्रमुख है।
खनिजों की विशेषताएं :-
खनिजों की आधारभूत विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
(1) पृथ्वी पर इनका वितरण असमान है।
(2) अधिकांश निश्चित एवं अनव्यकरणीय होते हैं।
(3) अधिकांश खनिज भूगर्भ मे छिपे रहते हैं, जिनके सर्वेक्षण एवं उत्खनन के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी, श्रम और विकसित प्राविधिकी की आवश्यकता पड़ती है।
(4) निरंतर खनन द्वारा खाने दिन-प्रतिदिन खर्चीली व अनार्थिक होती जाती है।
(5) कोई भी देश खनिजों के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं है।
(6) खनिजों का उत्खनन, उपयोग, बाजार तथा मांग पर आधारित होता है।
(7) खनिज विशेष संरचना तथा संगठन के बने होते हैं।
प्राथमिक व्यवसाय
खनिजों का वर्गीकरण :-
भूपटल में 1000 से अधिक खनिज पाए जाते हैं। इनमें से लगभग 200 खनिजों का उत्पादन उद्योग उपयोग के लिए हो रहा है। आधुनिक औद्योगिक अर्थतंत्र के लिए लगभग 80 खनिज पदार्थ आवश्यक समझे जाते हैं। खनिज पदार्थों को प्रधानतः तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
खनिजों का वितरण :-
खनिजों का संबंध चट्टानों से होता है। चट्टाने मुख्यतः तीन प्रकार की होती है- (1) आग्नेय चट्टानें (2) कायांतरित चट्टाने (3) अवसादी चट्टानें।
आग्नेय चट्टानों मे सोना, चांदी, तांबा, जस्ता, सीसा, गंधक आदि खनिज पाए जाते हैं।
कायांतरित चट्टानों में ग्रेफाइट, हीरा, संगमरमर आदि पाए जाते हैं।
अवसादी चट्टानों में कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, रॉक फास्फेट, पोटाश, नमक आदि खनिज अवसादी चट्टानों में प्रमुखता से पाए जाते हैं।