राजस्थान के लोक नृत्य
नृत्य
षास्त्रीय नृत्य परम्परा की कत्थक नृत्य शैली का विकास राजस्थान से माना जाता है।
राजस्थान का जयपुर घराना कत्थक नृत्य शैली का सबसे आदिम घराना माना जाता है।
वर्तमान में कत्थक की जयपुर शैली तथा लखनऊ शैली प्रमुख शैली है।
राजस्थान में शास्त्रीय नृत्य की कत्थक शैली के जयपुर घराने के प्रवर्तक शनूजी थे।
चमत्कार प्रदर्षन करना जयपुर घराने की प्रमुख विषेषता रही है।
लोक नृत्य
(प) क्षेत्रीय लोक नृत्य
वे लोकनृत्य जो किसी स्थान के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुए तथा विकसित होने वाले क्षेत्र की पहचान बन जाते है। वे क्षेत्रीय लोक नृत्य कहलाते है। राजस्थान के प्रमुख क्षेत्रीय नृत्य निम्न है।
राजस्थान गैर नृत्य
यह होली के अवसर गोल घेरे में सामूहिक रूप से किया जाने वाला नृत्य है।
गैर नृत्य मेवाड एंव बाँडमेर क्षेंत्र का प्रमुख लोक नृत्य है।
गैर नृत्य पुरूष प्रधान नृत्य है जिसमें महिलाए शग नहीं लेती है।
गैर नृत्य करने वाले गेरिये कहलाते है।
गैर नृत्य में शग लेने वाले गेरिये हाथ में लकडी की छडी लेकर गोल घेरा बनाते हुए नृत्य करते है।
यह नृत्य होली के दुसरे दिन से प्रारम्भ होकर प्रन्द्रह दिन तक खुले मैदान में किया जाता है।
गैर नृत्य में संगीत हेतु ढोल “ बांकिया तथा थाली का उपयोग किया जाता है।
राजस्थान गीदड नृत्य
यह होली के अवसर पर सामुहिक रूप से किया जाने वाला नृत्य है।
गीदड नृत्य राजस्थान केे शेखवाटी क्षेत्र सुजानगढ “ चूरू “ रामगढ “ लक्ष्मणगढ आदि क्षेत्रों में एक सप्ताह तक किया जाता है।
यह विषुध्द रूप से केवल पुरूषों का नृत्य है। जिसमें महिलाए शग नहीं लेती है मगर कुछ पुरूष महिलाए के वस्त्र धारण करके नृत्य में शग लेते है।
होली के अवसर पर डण्डा रोपन के साथ यह नृत्य आरम्भ होता है। तथा करीब सप्ताह तक चलता है।
नृत्य में संगत हेतु ढोल “ उफ “ चंग आदि वाद्य यन्त्रों का उपयोग होता है।
पुरूष हाथो में दो छोटे डण्डे लिए होते है। जिन्हें नृत्य करते समय नगाडें की चोट पर परस्पर चकराकर नृत्य आरम्भ होता है।
नृत्य में महिला वस्त्र धारण कर शग लेने वाले पुरूष गणगौर कहलाते है।
राजस्थान चंग नृत्य
राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर पुरूष प्रधान नृत्य है।
इस नृत्य में पुरूष हाथों में चंग लेकर उसे बजाते हुए वृताकार रूप में नृत्य करते है। चंग एक प्रकार का ढपलीनुमा बडा वाद्य यंत्र होता है। जिसमें एक तरफ खाल की बनी पर्त कसी होती है। तथा एक तरफ खाली होता है।
जालौर का ढोल नृत्य राजस्थान के मरूस्थीलीय क्षेत्रों का प्रसिध्द नृत्य है।
ढोल नृत्य प्रायः शादी के अवसर पर माली “ भील “ ढोली “ सरगणा आदि जातियों द्वारा किया जाता है।
नृत्य में चार -पाँच ढोल बजाए जातें है।
ढोल का मुखिया ढोले को “ थाकना शैली “ में बजाना आरम्भ करता है। थाकना के समाप्त होते ही अन्य नृत्यकारों में कोई मुंह में तलवार लेकर कोई हाथ में डण्डे लेकर कोई भुजा में रूमाल लटकाकर आदि रूप में लयबध्द अंग संचालन द्वारा नृत्य आरम्भ करते है।
राजस्थान अग्नि नृत्य
अग्नि नृत्य जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
अग्नि नृत्य का उदगम बीकानेर के कतरियासर ग्राम में हुआ ।
अग्नि नृत्य पुरूष प्रधान नृत्य होता है। इसमें महिला शग नहीं लेती है।
सह नृत्य चुरू “ नागौर “ बीकानेर जिलों जसनाथी सिध्दों के रात्रिकालीन जागरणों में किया जाता है।
राजस्थान बम नृत्य (बमरसिया नृत्य)
यह नृत्य विषुध्द रूप से श्रतपुर क्षेत्र का नृत्य है साथ ही श्रतपुर से लगे अलवर व मेवाती क्षेत्रों में श्ी प्रचलित है।
इस नृत्य में एक बडें नगाडें (स्थानीय शषा में जिसे बम कहते है। ) का प्रयोंग किया जाता है। जोकि लगभग ढाई तीन फीट ऊँचा और लगभग दो फीट व्यास का होता है।
नगाडें (बम) को बजाने के कारण इस नृत्य का नाम बम नृत्य पडा है।
पुरूष प्रधान यह नृत्य फाल्गुन माह मे नई फसल आने की खुषी एंव मस्ती में किया जाता है।
नृत्य में बम के बजने के साथ ही साथ रसिया श्ी गाए जाते है। इसी कारण वष इस नृत्य को बमरसिया (बम$रसिया) नृत्य कहा जाता है।
राजस्थान डांडियाँ नृत्य
मारवाड क्षेत्र में प्रचलित इस नृत्य को डांडिया या डांडिया नृत्य के नाम से जाना जाता है।
होली के अवसर से आरम्भ किया जाने वाला यह नृत्य विषुध्द रूप से पुरूषों का नृत्य है।
टोली के प्रत्येक व्यक्तियों द्वारा दोनों हाथों में लकडी की छोटी छडी लेकर छडियों को आपस में टकराते हुए वृत्ताकार रूप में नृत्य किया जाता है।
नृत्य का साथ देने वाले शहनाई वादक “ नगाडे वाले तथा गवैये आदि चैक में बैठकर विलम्बित लय लोक-ख्याल गाते है।
नृत्यकारों का साथ देने के लिए गायक नृन्योपयोगी होली गीत गाते है। जिनमें श्ैरूजी का गुणगान होता है।
राजस्थान घूमर नृत्य
घूमर नृत्य को राजस्थान का प्रतीक “ राजस्थान के नृत्यों का सिरमौर माना जाता है। जो कि राजस्थान के पष्चिमी शग में लोकप्रिय है।
घूमर नृत्य विषुध्द रूप से महिलाओं द्वारा मांगलिक अवसरों “ पर्वो एंव त्यौहारों के अवसर पर किया जाने वाला लोकप्रिय नृत्य है।
नृत्य में प्रयुक्त लहंगा जो नृत्य करते वक्त वृत्ताकार रूप में फैलता है “ प्रेरणा का स्त्रोत है।
घूमर नृत्य के साथ आठ मात्रा कें कहरवे की विषेष चाल होता है जिसे सवाई कहते है।
राजस्थान गरबा नृत्य
गरबा नृत्य बांसवाडा और डूंगरपुर का लोकप्रिय नृत्य है।
यह नृत्य प्रायः नवरात्रि की स्थापना के साथ आरम्भ होता हैै। तथा नवरात्रि की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है।
राजस्थान के लोक नृत्य जन-जातिये लोक नृत्य
श्ीलों के लोक नृत्य
राजस्थान गैर नृत्य
यह एक होली नृत्य है जो होली के अवसर पर नई फसल काटने के हर्षोउल्लास में मनाया जाता है।
राजस्थान गबरी नृत्य
नृत्य नाटक के रूप में प्रस्तुत यह नृत्य सावन शदों के अवसर पर सारे श्ील प्रदेषों में किया जाता है। श्गवान षिव इस नृत्य नाटक के प्रमुख पात्र होते है। तथा श्गवान षिव की अध्र्दागिनी गौरी (पार्वती ) के नाम पर इस नृत्य का नाम गबरी पडा है।
गबरी नृत्य में श्गवान षिव को पुरिया नाम से जाना जाता है।
गबरी नृत्य को राई नृत्य नृत्य के नाम से श्ी जाना जाता है।
राजस्थान नेजा नृत्य
यह होली के अवसर पर आयोजित किया जाने वाला श्ीलों का खेल -नृत्य है जो होली के तीसरे दिन आयोजित किया जाता है।
इस नृत्य के आरम्भ होने से पूर्व जमीन में एक खम्बा रोपकर उसके ऊपर एक नारियल रख दिया जाता है। तथा इस खम्बे को स्त्रियाँ अपने हाथ में लकडी की छडी लेकर चारों तरफ घेर लेती है।
नृत्य के दौरान पुरूष द्वारा खम्बे पर रखे नारियल को लेने का प्रयास किया जाता है। तथा इस दौरान स्त्रियाँ उन्हें छडी से पीटती है। तथा नारियल को लेने से रोकती है।
गरासियों के लोक नृत्य
राजस्थान वालर नृत्य
यह गरासिया जनजाति का प्रसिध्द लोक नृत्य है जिसमें पुरूष एंव महिलाए सम्मिलित रूप से शग लेती है।
यह नृत्य अरावली एंव विंध्य पर्वतमाला (सिरोही जिला) में गरासिया जनजाति के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
वालर नृत्य मन्दगति का नृत्य है। जिसमें किसी श्ी वाद्य यन्त्र का उपयोग नहीं होता है।
यह नृत्य अध्र्दवृत्त में होता है। जिसमें दो अध्र्दवृŸा में महिलाएॅ शग लेंती है।
इस नृत्य का आरम्भ एक पुरूष हाथ में तलवार या छाता लेकर करता है।
वालर नृत्य में पुरूष -स्त्रियाॅ नृत्य के साथ -साथ गीत गाते है।
इस नृत्य के अलावा घूमर नृत्य “मादल नृत्य “लूर नृत्य आदि गरासिया समुदाय द्वारा किए जाने वाले नृत्य है।
जातियों के लोकनृत्य
राजस्थान बनजारों का लोक नृत्य
बनजारों जाति एक घुमक्कड प्रवृति की जाति है जो कभी श्ी एक स्थान पर स्थाई निवास नहीं करती है। जो सामान्यतः नाच गाकर अपनी जीविका चलाते है। सारंगी “ढोलकी आदि इनके वाद्य यंत्र होते है।
राजस्थान कंजरों के नृत्य
कंजर एक खानाबदोष जाति होती है।
स्त्रियाॅ नाचने गाने में माहिर होती है। तथा पुरूष स्त्रियों का नाचने में साथ देने के लिए चंग बजाते है।
कंजर नृत्य में महिलाए प्रायः पैसे के लिए नाचती है। तथा दर्षको की मांग के अनुसार नृत्य करती है।
राजस्थान नटों का नृत्य
नट एक खेल तमाषा दिखा कर जीवन यापन करने वाली एक खानाबदोष जाति हाती है।
नटों में लोगों को श्ीड एकत्र कर उन्हें विभिन्न प्रकार के जादू एंव मनोरंजनक खेल दिखाया जाता है। तथा महिला नृत्य करती है।
राजस्थान सांसियों का नृत्य
सांसी एक जयराम पेषा जाति है जिसमें स्त्री -पुरूष दोनों मिलकर एक दूसरे के आमने सामने स्वछंद अंग -भंगिमाएं बनाते हुए नृत्य करते है।
नृत्य में संगीत के लिए ढोलक और थाली का वाद्य यन्त्रों के रूप में उपयोग होता है।
राजस्थान कालबेलियों (सपेरों) के नृत्य
राजस्थान शंकरिया
शेरिया प्रेम कहानी पर आधारित कालबेलिया जाति का एक युगल नृत्य है जिसमें महिलाए एंव पुरूष शग लेते है नृत्य में अंगों का संचालन मोहक होता है ।
राजस्थान पणिहारी
यह नृत्य राजस्थान की पणियारी (पणिहारी)गायन विद्या पर आधारित एक युगल नृत्य है जिसमें पुरूष एंव महिला सम्मिलित रूप से शग लेते है।
राजस्थान इण्डोणी
इण्डोणी (इण्डोणी)वृत्ताकार रूप में किया जाने वाला युगल नृत्य है जिसमे महिला और पुरूष संयुक्त रूप से शग लेते है।
इस नृत्य में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख यन्त्र पुंगी और खंजरी है।
राजस्थान बागडिया नृत्य
इस नृत्य को कालबेलिया जाति की महिलाए श्ीख मागते समय करती है। इस नृत्य संगीत के लिए चंग वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है।
राजस्थान व्यावसायिक लोक नृत्य
राजस्थान श्वाई नृत्य
राजस्थान के व्यावसायिक लोक नृत्यों में श्वाई नृत्य प्रमुख स्थान रखता है।
श्वाई नृत्य और उसके साथ वाद्य वादन में शास्त्रीय नृत्य कला की झलक देखने को मिलती है।
श्वाई नृत्य की प्रमुख विषेषता नृत्य अदायगी शारीरिक क्रियाओं के लिए अदभुद चमत्कार तथा लय की विविधता है जिसमें ढोलक वादन के साथ भवाई -नृत्यकार की चाल -नृत्य का चमत्कार देखते ही बनता है।
श्वाई नृत्य की विषेषताओं में तेज लय में विविध रंगों की पगडियों को हवा में फैलाकर नृत्य करते हुए उॅगलियों से कमल का फुल बना लेना सिर पर सात -आठ मटके रख कर नृत्य करना “ मुंह से जमीन पर पडें रूमाल को नृत्य करतें हुए उठान“ गिलासों पर एंव थाली के किनारों पर नृत्य करना “ तलवार की तेजधार और काॅच के टुकडों पर नृत्य करना आदि प्रमुख है।
राजस्थान तेरहताली नृत्य
राजस्थान के रामदेवरा में रामदेवजी के श्क्त कामड उनकी आराधना में सर नृत्य को करते है।
नृत्य के अंतर्गत महिलाएं नृत्य करती है। तथा पुरूष तानुपुरा ्््् मंजीरा तथा
चैतारा बजा कर नृत्यांगना को लय देते है।
इस नृत्य में नृत्यांगना के शरीर पर तेरह मंजीरें जिनमें नौ मंजीरे दायें पाँव पर‘ दो मंजीरे दोनों हाथों की कोहनियों के ऊपर ’ तथा एक-एक मंजीरा दोनों हाथों में होता है।
अन्य नृत्य
राजस्थान कच्छी घोडी नृत्य
यह नृत्य ’ नृत्य संयोजन ’ की विषिष्ट कला के कारण प्रसिध्द है जिसमें नृर्तकोें की चार -चार के समुह में एक दूसरे के सम्मुख मुंह करते हुए दो पंक्तियों होती है। जो तीव्र गति से आग पीछे हटने का क्रमबध्द नृत्य संचालन करते है।
नृत्यों में पंक्तियों का आगे तथा पीछे होना फूल की पंखुडियों के खुलने तथा बन्द होने का आभास कराता है।
राजस्थान चरी नृत्य
यह नृत्य मुख्यतया गुर्जर जाति का नृत्य है जो किषनगढ के पास गुर्जर समुदाय में प्रसिध्द है।
नृत्य में नृत्यांगना सिर पर चरी (कलष) रखकर उसमें तेल डालकर कपास का टुकडा डालने के बाद उसे जला दिया जाता है। जिसमें आग की लपटें निकलती है। तथा नृत्य करते हुए हाथ की कलाई को घुमाती है।
नृत्य में बांकिया ढोल और थाल का वाद्ययंत्र के रूप् में प्रयोग होता है।
फलकूबाई (किषनगढ)इस नृत्य की प्रसिध्द नृत्यांगना है।
राजस्थान घुडला नृत्य
यह नृत्य मारवाड क्षेत्र में प्रचलित है।
घुडला नृत्य में एक छिद्रित मटकी जिसमें दीपक रखा होता है। को स्त्रियाँ श्रृंगार करने के बाद सिर पर रखकर वृत्ताकार चक्कर बनाती हुई नाचती है।
राजस्थान के नृत्य एंव लोक नृत्य विषिष्ट तथ्य
श्ीलों का एक अन्य प्रमुख नृत्य राई नृत्य है। तथा श्गवान षिव नृत्य के प्रमुख पात्र होते है।
जिन्हें कि पुरियाँ कहा जाता है।
इस नृत्य में नृतक श्गवान षिव के त्रिषूल के आस -पास थाली और मांदल की ताल पर नृत्य करते है।
यह नृत्य डूंगरपुर उदयपुर बाँसवाडा और प्रतापगढ क्षेत्र के श्ीलों में प्रमुखतः कंजर जनजाति में लोकप्रिय है।
जयपुरके मणिगांगुली एंव उदयपुर के देवीलाल सांभर को राजस्थान में लोकनृत्यों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय जाता है।
जोधपुर के कमल कोठारी का लोक नृत्यों के पुनःविकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।