चोलों के अधीन स्थानीय प्रशासन का वर्णन करें।

चोलों के अधीन स्थानीय प्रशासन का विस्तृत वर्णन

चोल साम्राज्य (9वीं से 13वीं शताब्दी) का प्रशासनिक ढाँचा भारतीय इतिहास में अपनी कुशलता और प्रभावशीलता के लिए प्रसिद्ध है। यह प्रशासनिक व्यवस्था न केवल साम्राज्य की स्थिरता सुनिश्चित करती थी, बल्कि जनसहभागिता और स्वायत्तता का उत्कृष्ट उदाहरण भी प्रस्तुत करती थी। चोलों के महान शासक, जैसे राजराजा चोल और राजेंद्र चोल, ने स्थानीय प्रशासन को विशेष महत्व दिया और इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।


स्थानीय प्रशासनिक इकाइयाँ

चोल साम्राज्य में स्थानीय प्रशासन को तीन मुख्य इकाइयों में बाँटा गया था:

  1. नाडु:
    • यह चोल साम्राज्य की मुख्य प्रशासनिक इकाई थी।
    • नाडु में कई गाँव आते थे और यह स्थानीय प्रशासन का केंद्र था।
    • नाडु का प्रमुख अधिकारी नाट्टार कहलाता था, जो कर संग्रहण और शांति व्यवस्था सुनिश्चित करता था।
  2. उर:
    • यह सामान्य गाँवों की सभा थी।
    • उर गाँव के स्थानीय निवासियों द्वारा संचालित होती थी और इसमें सभी जातियों का प्रतिनिधित्व होता था।
    • उर का कार्य भूमि सुधार, कर संग्रह, सिंचाई, और विवादों का निपटारा करना था।
  3. सभा (महासभा):
    • यह ब्राह्मणों द्वारा बसाए गए गाँवों (अग्रहारा) की प्रशासनिक सभा थी।
    • सभा में केवल ब्राह्मण पुरुष सदस्य शामिल होते थे, और इसे शासकीय मामलों का व्यापक अनुभव होता था।
    • सभा भूमि के प्रबंधन, दान, शिक्षा, और मंदिरों की देखरेख जैसे कार्यों का संचालन करती थी।

ग्राम प्रशासन

चोल शासन में गाँव प्रशासन की स्वायत्तता विशेष रूप से उल्लेखनीय थी। प्रत्येक गाँव प्रशासनिक कार्यों को स्वतंत्र रूप से संचालित करता था। ग्राम प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं:

  1. स्वायत्तता:
    • हर गाँव अपनी सभा के माध्यम से निर्णय लेता था।
    • कर संग्रह, सिंचाई योजनाएँ, और सड़क निर्माण जैसे कार्य ग्राम सभाओं द्वारा किए जाते थे।
  2. वित्तीय प्रबंधन:
    • गाँवों को कर प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्वायत्तता थी।
    • गाँवों में उत्पन्न होने वाले राजस्व का एक हिस्सा साम्राज्य को भेजा जाता था और बाकी स्थानीय विकास के लिए उपयोग होता था।
  3. न्याय व्यवस्था:
    • ग्राम सभाएँ न्यायिक मामलों का निपटारा करती थीं।
    • छोटे-मोटे अपराधों और भूमि विवादों को ग्राम स्तर पर हल किया जाता था।

संगठन और कार्यप्रणाली

चोलों के स्थानीय प्रशासन का संगठन और कार्यप्रणाली बहुत ही सुदृढ़ और व्यवस्थित थी।

  1. चयन प्रक्रिया:
    • ग्राम सभाओं के सदस्य चुनाव के माध्यम से चुने जाते थे।
    • यह प्रक्रिया पारदर्शी थी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मेदारी दी जाती थी।
  2. समितियाँ (वारियम):
    • ग्राम सभा में विभिन्न समितियाँ होती थीं, जिन्हें ‘वारियम’ कहा जाता था।
    • प्रमुख समितियाँ इस प्रकार थीं:
      • इरिगेशन कमेटी (वेलम वारियम): सिंचाई प्रबंधन।
      • फाइनेंस कमेटी (पोरुल वारियम): वित्तीय प्रबंधन।
      • टेम्पल कमेटी: मंदिरों की देखरेख और धार्मिक कार्यों का संचालन।
  3. प्रलेखन:
    • ग्राम सभाओं के निर्णयों और कार्यों को शिलालेखों पर अंकित किया जाता था।
    • इन शिलालेखों से हमें चोल शासन की प्रशासनिक व्यवस्था की विस्तृत जानकारी मिलती है।

निष्कर्ष

चोलों का स्थानीय प्रशासन न केवल संगठित था, बल्कि अत्यधिक प्रभावी भी था। यह प्रणाली स्थानीय जनता को प्रशासन में शामिल करती थी, जिससे प्रशासनिक कार्यों में पारदर्शिता और कुशलता बनी रहती थी। ग्राम सभाओं और उनकी स्वायत्तता ने चोल साम्राज्य की राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस प्रशासनिक व्यवस्था ने भारतीय इतिहास में स्थानीय शासन का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया, जो आज भी अध्ययन और अनुकरण के योग्य है।

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